दोहा छंद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
दोहा छंद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

दोहे - डॉ. अवधी हरि

 


होने देते युद्ध क्याकभी कृष्ण भगवान। 

बात, बात से मानते, अगर दुष्ट इन्सान।।

 

नहीं थोपना चाहिए, अपना कहीं महत्व।

लाख हमारा हो कहीं, प्रेम और अपनत्व।।

संस्कृत दोहे हिन्दी अर्थ सहित - डॉ. लक्ष्मीनारायण पाण्डेय


 

याति भीतिभयभीषणं वर्षं दर्पितमेव,

जनयेज्जनगणमङ्गलं ,नववर्षं हे देव !


 भीतिभूखभय से भरा रुग्ण गया चौबीस ।

जनगणमनमंगल करे,हे भगवन् पच्चीस ।

दोहे - राजमूर्ति 'सौरभ'


 

राधे! राधे!राधिका, मोहन!मोहन! श्याम।

दोनों ही जपने लगे,अपना-अपना नाम।।

 

एक दूसरे को जपें, निशिदिन, आठों याम।

साधारण प्रेमी नहीं, हैं राधा-घनश्याम।।

नये साल के दोहे - रमेश शर्मा



आई है नव वर्ष की, नई नवेली भोर ।

खिड़की से दिल की मुझे, झाँक रहा चितचोर ।।

 

पहुँची हो चौबीस में, लेखन से कुछ ठेस ।

क्षमा ह्रदय से माँगता, उनसे आज रमेश ।।

दोहे - रामबाबू रस्तोगी

हंस रेत चुगने लगे, बिना नीर का ताल।
मछुआरे खाने लगे , काट- काट कर जाल॥

जिसकी जैसी साधना , उसके वैसे भाग।
तितली कड़वी नीम पर , बैठी पिये पराग॥

सपनों के बाज़ार में , आँसू का क्या मोल।
यह पत्थर दिल गाँव है , यहाँ ज़ख़्म मत खोल॥

हरसिंगार की चाह में , हम हो गये बबूल।
शापित हाथों में हुआ , मोती आकर धूल॥

अलग-अलग हर ख़्वाब का, अलग- अलग महसूल।
एक भाव बिकते नहीं सेमल और बबूल॥

राजपथों पर रौशनी , बाकी नगर उदास।
उम्र क़ैद है चाँद को , सूरज को वनवास॥

घर का कचरा हो गये , अब बूढ़े माँ- बाप।
बेटे इंचीटेप से उम्र रहे हैं नाप॥


दोहे - मधुर बिहारी गोस्वामी

चहूँ ओर भूखे नयन, चाहें कुछ भी दान।
सूखी बासी रोटियाँ, लगतीं रस की खान।।

भूखीं आँखें देखतीं, रोटी के कुछ कौर।
एक बार फिर ले गया, कागा अपने ठौर ।।

लुटती पिटती द्रौपदी, आती सबके बीच ।
अंधे राजा से सभी, रहते नज़रें खींच।।

पेट धँसा, मुख पीतिमा, आँखें थीं लाचार।
कल फिर एक गरीब का, टूटा जीवन तार।।

यह कैसा युग आ गया, कदम कदम पर रोग।
डरे - डरे रस्ते दिखें, मरे-मरे सब लोग।।

जहाँ चलें दिखती वहाँ, पगलायी सी भीड़।
आओ बैठें दूर अब , अलग बना कर नीड़।।


डा. मधुर बिहारी गोस्वामी

दोहे - श्लेष चन्द्राकर

View photo in message



देखो कितना आजकल, बदल गया संसार |
अपने ही करने लगे, अपनों पर ही वार ||

सच कहना लगने लगा, मुझको तो अब पाप |
सच कहने वाले यहाँ, झेल रहे संताप ||

तन मन चंगा हो तभी, मन में उठे हिलोर |
वरना सुर संगीत भी, लगने लगता शोर ||

मिली भगत का खेल है, समझो मेरे यार |
रिश्वतखोरी का यहाँ, चलता है व्यापार ||

पग पग पर मिलने लगे, अब तो बंधु दलाल |
करवट कैसी ले रही, देख समय की चाल ||

सहते आये हैं सदा, सहना अपना काम |
क्योंकि भैया लोग हम, कहलाते हैं आम ||

चुनकर भेजा था जिन्हें, आयेंगे कुछ काम |
नेता जी लेकिन वहाँ, करते है आराम ||

किस हद तक गिरने लगा, देखो अब इंसान |
नियम कायदे तोड़ना, समझे अपनी शान ||

मर्यादा को भूल कर, करता पापाचार |
मानव अब करने लगा, पशुओं सा व्यवहार ||

किसकी ये करतूत है, किसकी है ये भूल |
बगिया में खिलते नही, पहले जैसे फूल ||

लागू करते योजना, जोर शोर के साथ |
आता है क्या बोलिए, जनता के कुछ हाथ ||

इंसानों को भी लगा, साँपों वाला रोग |
बात बात पर आजकल, उगल रहे विष लोग ||

बना रहे हैं किस तरह, जहरीला माहौल |
इक दूजे के धर्म का, उड़ा रहे माखौल ||

पाक साफ दामन कहाँ, नेताओं के आज |
नित्य उजागर हो रहे, उनके नये कुकाज ||

दहशत के माहौल में, थम जाती है साँस |
दहशतगर्दी बन गयी, आज गले की फाँस ||

बच्चों को ये क्या हुआ, ओ मेरे करतार |
बहकावे में आ, करें, आतंकी व्यवहार ||

लड़ने में सब व्यस्त है, यहाँ जुबानी जंग |
हर घटना को दे रहे, राजनीति का रंग ||

अपने घोड़ों की कभी, कसते नही लगाम |
नाकामी अपनी छुपा, लगा रहे इल्ज़ाम ||

आजादी के बाद भी, समय नहीं उपयुक्त |
यारो! भ्रष्टाचार से, कब होंगे हम मुक्त ||

नेताओं की मति गई, सत्ता का सुख भोग |
शब्दों का करने लगे, स्तरहीन प्रयोग ||

कोरे भाषण से नही, बनने वाली बात |
सच्चा नेता है वही, बदले जो हालात ||

इमारतें बहुमंजिला, ढँक लेतीं आकाश |
झोपड-पट्टी को मिले, कैसे स्वच्छ प्रकाश ||

मार काट से क्या कभी, निकला है हल यार |
राह गलत आतंक की, छोड़ो तुम हथियार ||

रिश्वत का पैसा अगर, घर में लाये बाप |
बच्चो! कहना तुम उन्हें, रिश्वत लेना पाप ||

चुप रहने से तो नही, सुधरेंगे हालात |
चुभती है खामोशियाँ, कह दो मन की बात ||
--------------------------------------------------------
* श्लेष चन्द्राकर, 

09926744445

दोहे - राजपाल सिंह गुलिया

View photo in message



नयनों में धनवान के , जब जब उतरा खून !
   नजर मिलाते हो गया , अंधा  ये  कानून !

ठगिनी माया को कहें , कलयुग के अवधूत !
   उनके ही आसन तले , माया मिली अकूत !

भरे पेट को रोज ही , लगते छप्पन भोग !
   लड़कर कितने भूख से , सो जाते हैं लोग !

मतलब जब तक मन बसा , मीठा था वो नीम !
   रोग   कटा  तो   देख    लो , बैरी हुआ हकीम !

ये तो तनिक मजाक था , बुरा गए क्यों मान !
   चतुराई   से   लोग     अब , करते हैं अपमान !

मुकर गए जब बात से , राजा संग वजीर !
   हाल  देख   रोने   लगी , पत्थर पड़ी लकीर !

दर्शक बन करता रहा , लम्बी चौड़ी बात !
   उतरा   जब  मैदान में , पता चली औकात !

सोन चिड़ी को नोचकर , चले बेढ़बी चाल !
  थाती    धरें   विदेश   में , भारत माँ के लाल !

निराधार आरोप पर , बात बढ़ाए कौन !
     सबसे अच्छा झूठ का , उत्तर है बस मौन !

माधव के दरबार में , कैसा ये अंधेर !
         अंधों के हाथों लगे , देखो आज बटेर !

जग में जो सबकी सुने , फिर मन की ले मान !
      उस जन का होता सदा लोगों में गुणगान !

सब के सिर है आ चढ़ा , आज नशे का भूत !
      बाप  अहाते  में  पड़ा , पब में थिरके पूत !

पोरस की बातें सुनी , गया सिकंदर जान !
     नहीं  टूटता  शक्ति से ,  जन का स्वाभिमान !

गंगा मैली देखकर , उभरा यही सवाल !
      आज भगीरथ देखते , होता बहुत मलाल !
     


राजपाल सिंह गुलिया 
9416272973