मुहतरम अज़ीज़ बेलगामी साहब की आमद से इस ब्लॉग के नूर में इज़ाफ़ा हुआ है। आप बड़े ही नेकदिल इंसान और हरदिल अज़ीज़ शायर हैं। आप के पढ़ने वाले हिंदुस्तान से ज़ियादा हिंदुस्तान के बाहर हैं। मालिक की मेहरबानी से आप को बड़ा ही सुरीला कण्ठ मिला है। इन की तमाम वीडियो रिकार्डिंग्स यू ट्यूब पर मौजूद हैं। आप की ग़ज़लें अक्सर हमें अपने साथ बहा ले जाती हैं। मेरी बात की ताकीद आप की इस ग़ज़ल से भी होती है। ठाले-बैठे ब्लॉग को पढ़ने वाले तमाम साथी ग़ज़ल से ख़ासा लगाव रखते हैं, ख़ास कर उन सभी साथियों से मैं साग्रह निवेदन करना चाहूँगा कि इस ग़ज़ल को सिर्फ़ एक बार ही न पढ़ें.....
हम समझते रहे हयात गयी
क्या ख़बर थी बस एक रात गयी
ख़ानकाहों से मैं निकल आया
अब वो महदूद क़ायनात गयी
क्या शिकायत मुक़द्दमा कैसा
जान ही जाय-ए-वारदात गयी
जम के बरसेंगे जंग के बादल
कि फिज़ा-ए-मुज़ाकिरात गयी
बेसदा क्यों न हों ये नक़्क़ारे
मेरी आवाज़ शश-जिहात गयी
ख़ौफ़-ए-पुरशिश की जो अमीन नहीं
यूँ समझ लीजे वो हयात गयी
फिर उजालों के दिन फिरे हैं 'अज़ीज़'
लो अँधेरो तुम्हारी रात गयी
:- अज़ीज़ बेलगामी
हयात - ज़िन्दगी
ख़ानक़ाह - फ़कीरों, साधुओं के रहने का स्थान, आश्रम, कुटिया
महदूद - घिरा हुआ, सीमित, अल्प
क़ायनात - ब्रह्माण्ड
जाय-ए-वारदात - घटनास्थल
फिज़ा-ए-मुज़ाकरात- आपसी बातचीत का माहौल
नक़्क़ारा -नगाड़ा
शशजिहात - छह दिशा, पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण-ऊर्ध्व / ऊपर-अधर / नीचे, [वैदिक मान्यताओं के अनुसार दिशाएँ दस होती हैं]
ख़ौफ़-ए-पुरसिश - मृत्यु के बाद ईश्वर के दरबार में होने वाले हिसाब-क़िताब का भय
अमीन - अमानतदार / वाहक के संदर्भ में
बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून
फाएलातुन मुफ़ाएलुन फालुन
2122 1212 22