उर्दू का
ज़िक्र आते ही अक्सर मैं उछलता हूँ ऐसे
नुक़्ता रखने
पर मुक्ता-माणिक मिल जायेंगे जैसे
ऐन-ग़ैन की
बह्सों में शिरकत करता हूँ कुछ ऐसे
जैसे हर इक
तर्क पे मुझ को मिलने वाले हों पैसे
चन्द्र-बिन्दु
और अनुस्वार का अन्तर भी अब याद नहीं
नहीं जानता
हँसने वाला आख़िर हन्सेगा कैसे
(हंसेगा)
ड़ ण ञ का
इस्तेमाल किये इक अरसा बीत गया
दिल - दल
वाले हर्फ़ मगर पढ़ लेता हूँ जैसे-तैसे
सूरदास बन
कर दिन-दिन भर मीरा को पढ़ता हूँ और
मीरो-ग़ालिब बन जाता हूँ रोज शाम पौने छै से
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