दोहे
– मनोहर अभय
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हम बरगद
जैसे विटप फैलीं शाख प्रशाख ,
धूप सही
छाया करी पंछी पाले लाख .
आठ गुना
सम्पद बढ़ी ड्योढ़ी हुई पगार ,
बढ़त हमारी
खा गया बढ़ता हुआ बज़ार |
क्या प्रपंच
रचने लगे तुम साथी शालीन,
खुलीं
मछलियाँ छोड़ दीं बगुलों के आधीन |
महक पूछती
फिर रही उन फूलों का हाल ,
कहीं अनछुए
झर गए उलझ कँटीली डाल.
गढ़े खिलौंने
चाक पर माटी गूँद कुम्हार,
हम माटी से
पूछते किसने गढ़ा कुम्हार
चलो सुबह की
धूप में खुल कर करें नहान,
धुले जलज सी
खिल उठे फिर अपनी पहचान
सुनो धरा की
धड़कनें ऋतुओं के संवाद ,
चन्दन धोये
पवन से करो न वादविवाद
बैजनियाँ
बादल घिरे बूँदें झरी फुहार,
धूप नहाने
में लगी सारी तपन उतार
आमंत्रण था
आपका हम हो गए निहाल ,
जब तक
पहुँचे भोज में उखड़ गए पंडाल.
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