बावलों की खातिर हमें
भी वर्ल्डकप में ले जाओ रे - अनुज खरे
और इस खेल में है भी क्या साहब, फुटबॉल से ज्यादा
किक तो एक दूसरे को ठोंकते हैं। कदम-कदम पर कोहनियों से दूसरे खिलाड़ी की पसलियों
पर डौंचे मारते हैं। पलटियां खाते हैं। गिरते हैं। खड़े हो जाते हैं। सामने वाले
से भिड़ जाते हैं। अरे मैं तो कहता हूं निहायत ही जाहिल तौर तरीके हैं साब..! ऊपर
से नेमार-लेमार टाइप नाम भी रखते हैं। सामने वाला भिड़ने से पहले ही दहशत में आ
जाए कि कहीं मार ही न दे...इधर देखो क्या गऊछाप नाम हैं हमारे वालों के राहुल..,
लक्ष्मण...नाम से ही विनम्रता की बू आती है। सादगी टपकती है। लक्ष्मण
है तो आज्ञाकारी ही होगा, बताने की जरूरत है कहीं...नहीं
ना..!
इसीलिए चाहे
फुटबॉल वर्ल्डकप चले या कुछ और क्रिकेट के आगे हम इतना ही सोच पाते हैं बेगानी
शादी में अब्दुल्ला टाइप लोग कौन हैं जो दूसरी टीमों के लिए लगे पड़े हैं। ऊपर से
इनकी डिप्लोमेसी भी देखिए साहब, फैन भी उसी टीम के हैं जो जीत रही है।
कई की च्वाइस तो फाइनल तक ओपन है। जो जीतेगा उसी के संग हैंगे। मुंहअंधेरे
उठकर...पता नहीं किन मैसियों के पीछे अपनी नींद खराब कर रहे हैं। कई को तो `विला` ही हिला-हिला कर जगा रहे हैं भाई हम मैदान में
आ गए हैं उठ बैठो। भाई लोग उठ बैठते हैं। अपन कई बार सोचते हैं कि जब कोई जोरदार
गोल होता होगा तो इन बावलों के सीने में वो देसी हूक उठती होगी जो सचिन के छक्के
पर उठती है। धांसू पास दिल में समा जाता होगा या पास से ही निकल जाता होगा?
लहराते रोनाल्डो के साथ भावनाओं का वो लोकल वाला फ्लेवर आता होगा..?
शायद..! लेकिन एक
हूक मेरे दिल में जरूर उठती है, सवा अरब का देश है 11 खिलाड़ी नहीं मिल रहे हैं जो इन मासूम बावलों की खातिर देश को फुटबॉल
वर्ल्डकप में ले जा सकें। कम से कम सुबह जागने का सपना तो पूरा करा सकें..!!
बदलाव हो जाते हैं, आपको पता
नहीं चल पाता है..! - अनुज खरे
`बदलाव
लाओ..! कैसे भी लाओ! कहीं से भी लाओ! आई वांट बदलाव!` करारी
आवाज। `सर वे बदलाव के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं..! निवेदन
हुआ।
`ठस
लोगों को हटाओ, मैं कहता हूं बदलाव लाओ..!` इस बार दहाड़। `सर ढीट टाइप लोग हैं, दे कांट प्रिपेयर फॉर बदलाव..!` आवाज में विनम्रता
का पुट।
`आई
वांट बदलाव एंड नॉथिंग एल्स, जो बदलाव के लिए तैयार नहीं हैं
उन्हें व्यवस्था से उठाकर बाहर फेंको..!` गुस्सैल भाव-भंगिमा
का अंदाजा बैठा लें।
`सर
उनकी जड़ें मजबूत हैं। उखाड़े नहीं उखड़ेंगी। बरसों से बदलाव के ऊपर कुंडली मारकर
बैठे हैं। बदलाव को बकवास साबित करते रहते हैं..!` इस बार
मिमियाने सा स्वर। `इसीलिए तो बदलाव चाहिए। संपूर्ण बदलाव
चाहिए। हर हाल में चाहिए। तुरंत लाओ। भई जनता कब तक इंतजार करेगी..!` चिंता से भीगी आवाज।
`सर,
वैसे बदलाव में आपको क्या-क्या चाहिए..!` अधीनस्थ
टाइप जिज्ञासाभरी आवाज।
`बदलाव
में हमें बदलाव चाहिए। न ज्यादा चाहिए। न कम चाहिए। बस, बदलाव
चाहिए..!` सामने वाले के प्रति आंखों औऱ आवाज में तुच्छता
भरे भाव की कल्पना लगेगी।
`सर,
फिर भी कुछ दिशानिर्देश बदलाव की दिशा में मिल जाते.., ड्रॉफ्टिंग में उपयोगी रहता..!` जिन आवाजों का
सरकारीकारण हो जाता है वैसा विचारें।
`आप
बरसों से काम कर रहे हैं और आप बदलाव नहीं समझ पा रहे हैं..!`
`सर..!
सर..! सर..!`
`कुछ
नहीं है, मैं कहता हूं कुछ नहीं है, एकमात्र
शाश्वत है बदलाव। बाकी सब बातें हैं। आई वांट बदलाव। बदलाव स्थायी भाव है। जाकर
बदलाव लाओ। आज से ही जुट जाओ, समझे..!` `सर, फिर भी कुछ डायरेक्शन मिल जाता तो पाइंट बनाने
में सुविधा..`
`तुम
खुद नहीं सोच सकते। खैर, सोच सकते तो सरकार में होते क्या..!
`हें...हें...हम भी बदल जाएंगे सर, अच्छा
सर, बदलाव की शुरूआत तो नीतिगत बदलाव के साथ ही होगी,
लिखवा दीजिए ना..!
`हां
लिखो, शुरूआत हमें करनी चाहिए इन बड़े कमरों के पर्दों में
बदलाव से, बल्कि पर्दे हटा ही दो..!` `सर,
कमरे में पर्दों के बदलाव से..!`
`हां,
पर्दे हटेंगे तो नीतियों में पर्याप्त मात्रा में प्राकृतिक प्रकाश
पड़ेगा। तभी तो उन पर जमी पुरातन धूल झाड़ी जा पाएगी, समझे..!`
`जी,
सर आगे..!` `हां, तो आगे,
लिखो- हमें कुर्सियां भी बदलना चाहिए..!` `सर
कुर्सियां भी..!` `हां, नई में बैठेंगे
तभी पुरानी मानसिकता से निकल बदलाव ला पाएंगे, समझे..!`
`जी सर, लिखा और..!`
`और
हमें पुरानी गाड़ियां हटाकर एकदम नई गाड़ियां भी ले आना चाहिए..!` `सर, नई गाड़ियां क्यों..?`
`अरे
ताकि रफ्तार दिखाई दे। यूथ रफ्तार पसंद करता है, रफ्तार समझे,
और सुनो, कमरों के बाहर बैठने वाले चपरासियों
को भी बदल देना चाहिए..!` `क्यों सर इसमें क्या पॉलिसी छुपी
है..!`
`भाई
ताकि फ्रेश विचार बेरोकटोक भीतर आ सकें, समझे..!`
`जी
सर, समझ गया, ठस व्यवस्था में बदलाव
इन्हीं क्रांतिकारी उपायों के माध्यम से ही आएगा..!`
`एक्सीलेंट,
तो जाओ काम में जुट जाओ, हमें बदलाव में देरी
बर्दाश्त नहीं...!`
`जी
सर..!`
सो मित्रो, बड़ी
व्यवस्था में बदलाव ऐसे ही पैकेज में होता है। वहां तो क्रांति हो भी जाती है।
कसूर तो आपका है, आप ही समझने में सक्षम नहीं होते
अनुज खरे - 8860427755