31 मई 2022

श्राद्ध के दिन पर्व मनाएँ या नहीं

How to celebrate Diwali If shradham falls on that day?

प्रश्न पूछा गया है कि श्राद्ध तिथि अगर दिवाली को पड़ जाये तो दिवाली को कैसे सेलिब्रेट किया जाये ?

सबसे पहले तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि हम श्राद्ध क्यों मनाते हैं और श्राद्ध का अर्थ क्या होता है ?

श्राद्ध का अर्थ

अपने पितरों को याद कर के उन के कल्याण हेतु अपनी-अपनी लोक रीतियों के अनुसार जो कुछ भी पुण्य काम हम सच्ची श्रद्धा के साथ करते हैं उसे श्राद्ध कहा जाता है ।

श्राद्ध क्यों मनाते हैं

हमारे बड़े-बुजुर्ग जो कि जीवित हैं उनके प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए हमारे पास अनेक विकल्प होते हैं मगर हमारे जो बड़े-बुजुर्ग स्वर्गवासी हो चुके हैं उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए श्राद्ध-कर्म किया जाता है ।

श्राद्ध तिथि को पर्व मनाएँ या नहीं

यह प्रश्न सैद्धान्तिक कम और व्यावहारिक अधिक है । यह विषय अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग प्रसंगों के लिए अलग-अलग है । यदि वह तिथि किसी बड़े-बुजुर्ग की है जो सबकुछ भोग-विलास कर के भरा-पूरा परिवार छोड़ कर के सुखद स्थिति में इस नश्वर संसार को छोड़ कर परलोक सिधारे हैं उस केस में तो सुबह के समय तिथि के अनुसार श्राद्ध कर्म करने के उपरान्त अन्य पारिवारिक सदस्यों की सहमति के साथ पर्व मनाने में कोई समस्या नहीं है परन्तु यदि यह प्रसंग दुखदायक है तो ऐसे में पर्व सम्बन्धी निर्णय लोक के अनुसार पारिवारिक सदस्यों से परामर्श कर के लेना ही अच्छा रहता है ।

28 मई 2022

हम ग़ालिबो-नज़ीर नहीं बन सके तो क्या

 

हम ग़ालिबो-नज़ीर नहीं बन सके तो क्या
शेरो-सुख़न में हमने गुज़ारी तमाम उम्र
उर्दू ज़बाँ पै अपना भी है क़र्ज़ दोसतो
हमने इसी की ज़ुल्फ़ सँवारी तमाम उम्र

हिमाचल प्रदेश के भाषा व संस्कृति विभाग द्वारा प्रकाशित उर्दू साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका “ जदीद फ़िक्रो-फ़न” का 102 वाँ अंक प्राप्त हुआ । पत्रिका के मुख्य सम्पादक हैं डॉ. पंकज ललित और अतिथि सम्पादक हैं श्री विजय कुमार अबरोल उर्फ़ ज़ाहिद अबरोल साहब । आदरणीय लालचन्द प्रार्थी उर्फ़ चाँद कुल्लुवी साहब को अपनी उपरोक्त पंक्तियाँ समर्पित कर के अपने सम्पादकीय को शुरू करते हुए अबरोल साहब ने भूत-वर्तमान और भविष्य की अच्छी पड़ताल की है । विशेषतः इन्हों ने विवेच्य अंक में उन रचनधर्मियों को विशेषतः स्थान दिया है जो किसी न किसी कारणवश भीड़ से दूर रहते हैं । उर्दू की इस पत्रिका के 26 पन्ने देवनागरी लिपि में हैं और 86 पन्ने नस्तालीक रस्म-उल-ख़त (पर्शियन स्क्रिप्ट जिसे हम उर्दू समझते हैं ) में हैं । मैं चूँकि पशियन स्क्रिप्ट से अनभिज्ञ हूँ इसलिए बस देवनागरी लिपि वाले हिस्से का ही रसास्वादन कर सका हूँ ।
 
इस पत्रिका से कुछ चुनिन्दा अशआर
 
मैं पहले ख़ौफ़ फैलाता हूँ फिर यह सोचता हूँ
परिन्दे मेरे आँगन में उतरते क्यों नहीं हैं
: अयाज़ अहमद तालिब
 
हमारी आँखें हमारी कहाँ हैं हो कर भी
वही है देखना हम को जो रब दिखाता है
“ कृष्ण कुमार “तूर”
 
तेरे मकान के बेलों लदे दरीचे पर
ये किसकी रूह का ताइर तवाफ़ करता है
“ राजिन्दर नाथ “राहबर”
 
रहते थी जिसके हाथ हमेशा कपास में
बेचारा मर गया नये कपड़ों की आस में
“ ज़मीर दरवेश
 
अब्र ख़ुशियों का अगर जम कर नहीं बरसा तो क्या
ग़म के बादल भी बहुत जल्दी धुआँ हो जाएँगे
: आबशार आदम
 
बहुत से लोग हवादिस में मारे जाते हैं
हर आदमी का जनाज़ा नहीं निकलता है
: “कशिश” होशियारपुरी
 
एक पोरस भी तो रहता है हमारे अन्दर
जो ‘सिकन्दर’ को ‘सिकन्दर’ नहीं रहने देता
: द्विजेंद्र द्विज
 
अब वो भी दिन में तारे दिखलाते हैं
जिनकी थाली में कल चाँद उतारा था
: नववीत शर्मा
 
यादों के गुलशन में यूँ तो रंग-बिरंगे फूल भी हैं
लेकिन फिरते हैं काँटों को सीने से चिपकाए लोग
: कृष्ण कुमार “नाज़”
 
ऐ वतन! अहले-वतन उनको भुला देते हैं
जो तेरा क़र्ज़ चुकाते हुए मर जाते हैं
“ सुभाष गुप्ता “शफ़ीक़”
 
कहाँ पर वार करना है पराया क्या ही जाने
कहाँ से दुर्ग ढहना है ये अपना जानता है
: जावेद उलफ़त
 
मोहल्ले वालों का सर फोड़ना है बात अलग
फटेगी शर्ट तो समझोगे तुम रफ़ू क्या है
: टी. एन. राज़
 
पहली सफ़ों में आज गुलूकार आ गये
कितना बड़ा मज़ाक़ हुआ शाइरी के साथ
: काशिफ़ अहसन
 
इस पत्रिका के सम्पादकीय में श्री विजय कुमार अबरोल उर्फ़ ज़ाहिद अबरोल साहब ने लिखा है कि 1982 में परलोक सिधार चुके चाँद कुल्लुवी साहब का देवनागरी लिपि में शेरी मजमूआ अभी भी प्रकाशन के लिए प्रतीक्षारत है । इस के अलावा भी अबरोल साहब ने इस बात से जुड़ी और भी बातों पर इशारे किए हैं । जो नहीं लिखा है उसे भी कोई भी ललितकला प्रेमी सहज ही समझ सकता है । आओ हम सभी आशा करें कि अबरोल साहब के प्रयासों को सफलता मिले ।