31 अगस्त 2011

दुष्यंत कुमार को समर्पित एक ग़ज़ल - फ़िज़ा के रंग में शामिल है ख़ुशबू-ए-दुष्यंत - नवीन

दुष्यन्त कुमार
१ सितम्बर यानि दुष्यंत कुमार की जन्म तिथिजैसे हम लोग फिल्मी गीत सुनते हैं पर अक्सर उस गीत के गीतकार का नाम हमें याद नहीं होता| मेरे द्वारा दुष्यंत कुमार का फेन होना भी कुछ ऐसा ही है| कहीं सुनी / पढ़ी पंक्तियाँ दिमाग़ में दर्ज़ हो कर रह गईं और कालांतर में पता चला कि ये पंक्तियाँ भारतीय जन मानस के अन्तर्मन में स्थायी निवास पा चुके मशहूर कवि / शायर दुष्यंत कुमार की हैं|  दुष्यंत कुमार को समर्पित एक ग़ज़ल :- 

ख़ुसूसो-ख़ास नगीनों में कोहेनूर हैं आप 
दिलोदिमाग़ पै तारी अजब सुरूर हैं आप 

किसी के वासते हैं आप मीर जैसे तो
किसी के वासते तुलसी, कबीर, सूर हैं आप 

तमाम हाथों को परचम थमाये ग़ज़लों के 
विनम्रता को लजाता हुआ ग़ुरूर हैं आप 

ज़ुबानी याद हैं बहुतों को आपके अशआर 
तो क्या हुआ कि ज़रा क़ायदों से दूर हैं आप 

जिसे जो कहना हो कहता रहे, उबलता रहे 
हमें तो लगता नहीं है कि बे-शऊर हैं आप 

फ़िज़ा के रंग में शामिल है ख़ुशबू-ए-दुष्यंत 
ज़हेनसीब, हमारे फ़लक का नूर हैं आप 


मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन
1212 1122 1212 22 
बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ 



दुष्यंत कुमार को ले कर कुछ और बातें अगली पोस्ट में जारी ....................................... 

29 अगस्त 2011

दो ग़ज़लें -" मूड है मेरा" और "हँसी गुम हो गयी"

ख़ुद अपनी हक़परस्ती के लिये जो अड़ नहीं सकता।
ज़माने से लड़ेगा क्या, जो खुद से लड़ नहीं सकता।१।


तरक़्क़ी चाहिए तो बन्दिशें भी तोड़नी होंगी।
अगर लंगर पड़ा हो तो सफ़ीना बढ़ नहीं सकता।२।


शराफ़त की हिमायत शायरी में ठीक लगती है।
सियासत में भले लोगों का झण्डा गड़ नहीं सकता।३।


सभी के साथ हैं कुछ ख़ूबियाँ तो ख़ामियाँ भी हैं।
भले हो शेर बब्बर, पेड़ों पर वो चढ़ नहीं सकता।४।


अब अच्छा या बुरा, जैसा भी है ये मूड है मेरा।
अगर मैं छोड़ दूँ इस को तो ग़ज़लें पढ़ नहीं सकता।५। 


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गाँवों से चौपाल, बातों से हँसी गुम हो गयी। 
सादगी, संज़ीदगी, ज़िंदादिली गुम हो गयी।१।

क़ैद में थी बस तभी तक दासतानों में रही।
द्वारिका जा कर, मगर, वो 'देवकी' गुम हो गयी।२।

वो ग़ज़ब ढाया है प्यारे आज के क़ानून ने।
बढ़ गयी तनख़्वाह, लेकिन 'ग्रेच्युटी' गुम गयी।३।

चौधराहट के सहारे ज़िंदगी चलती नहीं।
देख लो यू. एस. की भी हेकड़ी गुम हो गयी।४।

आज़ भी इक़बाल का सारे जहाँ मशहूर है। 
कौन कहता है जहाँ से शायरी गुम हो गयी।५।


 दूसरी ग़ज़ल में नए काफ़ियों का प्रयोग किया है उम्मीद है  गुणी जन पसंद करेंगे|

27 अगस्त 2011

एक युग का अंत

मशहूर पुष्टि मार्गीय चित्रकार व पहलवान श्री बंशीधर चतुर्वेदी

ईसवी सन १९७२, सारा देश आज़ादी की पच्चीसवीं सालगिरह मना रहा था। अलग अलग जगहों पर विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा था। इसी दरम्यान मथुरा नगरपालिका द्वारा भी विक्टोरिया पार्क में विराट कुश्ती दंगल का आयोजन किया गया| छोटे-बड़े पहलवानों की कई रोचक कुश्तियाँ हुई थीं इस दंगल में| पर सबसे ज़्यादा चर्चित रही ये कुश्ती:-


नारायण सिंह उस दौर में मथुरा के थानेदार हुआ करते थे। उन के रिश्ते के जाट पहलवान और काकाजी के बीच कुश्ती होना तय हुआ। प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि चींटी और हाथी का मुक़ाबला था। अखाड़े के चारों ओर जनसमूह उमड़ पड़ा था। भीड़ सम्हाले नहीं सँभल पा रही थी। व्यवस्था को नियंत्रण में लेने के लिए खुद थानेदार साहब को अखाड़े के चारों ओर राउंड लगाना पड़ा। इधर थानेदार साहब राउंड लगा रहे थे, उधर दोनों पहलवानों ने हाथ मिलाया - चट - पटाक - धड़ाम - चारों खाने चित्त..................................। 

बस कुछ ऐसे ही अंदाज़ में काकाजी ने उस पहलवान को अखाड़े के बीचोंबीच चित कर दिया। खेल खत्म - दंग हो गए देखने वाले - ज़ोर ज़ोर से तालियाँ बजने लगीं। कब हाथ मिले, कब दांव चला और कब .................... कुछ पता चले उस के पहले तो कुश्ती खत्म।

थानेदार साहब तो भौंचक ही रह गए। तपाक से बोल पड़े, हमने तो देखा ही नहीं, कुश्ती कैसे हो गयी। पीछे से आ कर काकाजी  के कंधे पर हाथ रख कर [पहलवान लोग किसी के द्वारा कंधे या पीठ पर हाथ रखने को बर्दाश्त नहीं करते] कुछ बोलने वाले थे कि उस से पहले ही काकाजी ने अपने आप को उसी मुद्रा में पलटाया और इसी क्रम में थानेदार साहब के मुंह पर .......................... । 

बस फिर क्या था, जैसे कि सारे माहौल को साँप सूंघ गया था। एकदम पिनड्रोप साइलेंस। तभी मियां पाड़े के मशहूर पहलवान 'लाला पहलवान' अखाड़े पर आ कर थानेदार साहब से हाथ जोड़ कर बोले - 'हुजूर कुश्ती तो हो गयी। ये अखाड़ा है, और हम पहलवान इसे बेहतर समझते हैं।' थानेदार साहब ने न केवल स्थिति को स्वीकार किया बल्कि बाद में काकाजी को कोतवाली बुला कर उनका यथोचित सम्मान भी किया। उन के बटुए में जितने भी नोट और सिक्के थे, सारे के सारे काकाजी पर न्यौछावर कर दिये। [उस जमाने में सिक्के भी भरे रहते थे बटुओं में। चवन्नी में बहुत कुछ हो जाया करता था उन दिनों]

ऐसे थे हमारे काकाजी श्री बंशीधर चतुर्वेदी। १९३६ में जन्म हुआ और ११ अगस्त २०११ को हरिशरण को प्राप्त हुए। १० अगस्त से मथुरा में था, उस दरम्यान विभिन्न लोगों से उन के कई सारे संस्मरण सुनने को मिले। उन में से कुछ हमारी आने वाली पीढ़ियों के सन्दर्भ हेतु यहाँ लिख रहा हूँ।
  • आगरा, अलीगढ़, हाथरस, गोवर्धन, गोकुल, वृदावन के अलावा बड़ोदा, अहमदाबाद, नाथद्वारा बल्कि मुंबई में भी कई दंगलों में कुश्तियाँ लड़े| खास बात ये कि आजीवन एक भी दंगल में कुश्ती पिटे नहीं| या तो सामने वाले को पछाड़ा या फिर बराबरी पर रहे। 
  • बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि मोहन पहलवान के भूतेश्वर [मथुरा] के नए अखाड़े पर मास्टर चंदगी राम के चेले ने खुला चेलेंज दे दिया था - और उन महाशय को चित होने के लिए एक मिनट से भी कम समय लगा था। 
  • आन्यौर [गोवर्धन, मथुरा] में गोस्वामी बालक सर्व श्री ब्रज रमण लाल जी और सर्व श्री नटवर गोपाल जी  की मौजूदगी में बहु प्रतीक्षित दंगल में कमल पहलवान [अकखो कमल] को पछाड़ा। काकाजी ब्रज रमण लाल जी के और कमल पहलवान नटवर गोपाल जी के प्रिय पहलवान थे। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार कुश्ती के बाद लट्ठ युद्ध भी हो गया था।
  • मथुरा के रेडियो स्टेशन के दंगल में उस दौर के जाने माने पहलवान उमर बद्दल को अखाड़े के चारों खानों की यात्रा करा कर बीच में ला कर चित किया।
  • नाथद्वारा के दादू पहलवान को पछाड़ा। बुजुर्गों ने सुनाया कि 'अगड़ी टँगड़ी' के बल पर जीती ये कुश्ती।
  • छावनी के दंगल में दिल्ली के मोती पहलवान के चेले पतराम को पछाड़ा।
  • हर साल तीजन के दंगल में २-३ कुश्तियाँ लड़ते थे।
  • सुनने में तो ये भी आया कि कई सारे स्वनाम धन्य पहलवान - जिस दंगल में काकाजी को देख लेते थे - वहाँ से कुछ न कुछ बहाना बना कर खिसक लेते थे।
  •  बाटी गाम के रामजीत पहलवान और महोली के गोपाल पहलवान काकाजी पर विशेष कृपा रखते थे। उन के अनुसार आगरा रीज़न में और खास कर ब्रज क्षेत्र में उन के जैसा पहलवान / चित्रकार  नहीं था। 
  • रोज २ से ढाई हजार दंड-बैठक लगाते थे। जीवन के अंतिम दिन भी दैनिक ५-११ दंड बैठक लगाई थीं और छोटे बच्चों को पीठ पर बैठा कर कुछ क्षण खेले भी थे।
  • अपने यौवन काल में रोजाना करीब ५०० ग्राम घी और ५ किलो भेंस का कच्चा दूध पीते थे।
  • अखाड़े में कुश्ती की प्रेक्टिस करने को 'ज़ोर करना' कहा जाता है। दैनिक कसरत के बाद काकाजी अखाड़े में उतर कर पहले अपने ३-४ सीनियर्स के साथ और बाद में थकने तक ३ से ५ जूनियर्स के साथ ज़ोर करते थे।
  • सुन कर ताज्जुब हुआ कि हरिशरण को प्राप्त होने के चंद हफ्ते पहले भी कुछ नए लड़कों को उन्होने कुश्ती के दांव पेच सिखाये थे।
  • वडोदरा में अपने निवास के समीप एक आखाडा बनाया और उस पर इच्छुक व्यक्तियों को मल्ल विद्या सिखाते थे।
  • काकाजी ने मथुरा नागटीले पर स्व॰ श्री बलदेव जी के मार्गदर्शन में पहलवानी का शुभारम्भ किया। बाद में सर्व श्री ब्रज रमण लाल जी ने उन्हें प्रायोजित किया और स्व. श्री नेताजी [तिहैया] ने उन के पहलवानी केरियर में चार चाँद लगाए।

पूज्य काकाजी सिर्फ पहलवान ही नहीं थे। वे एक उत्कृष्ट कोटि के पुष्टि मार्गीय चित्रकार भी थे। शायद ही कोई पुष्टि मार्गीय हवेली / गोस्वामी परिवार होगा जिन्होने काकाजी की सेवाएँ न ली हों। वेटिंग लिस्ट बनी रहती थी हमेशा। सिर्फ एक संदर्भ से ही आप समझ सकते हैं। ७६ साल की उम्र में ५ अगस्त २०११ को अपने द्वारा बनाई हुई पिछवायी [सीनरी] डिलीवर की, घर पर दूसरे काम प्रोसेस में थे ही उस के अलावा और भी आगे के काम ले कर घर पर आए थे। किसे पता था कि वह उन के जीवन की अंतिम कृति साबित होगी। हम उस अंतिम कृति के छाया चित्र को प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं। उन के तेरह दिनों के दरम्यान मैंने खुद उन के लड़के के मोबाइल पर कुछ लोगों के फोन अटेण्ड किए जो काकाजी की सेवाएँ लेना चाह रहे थे।

काकाजी को सन २००६ में कड़ी कालोल वाले गोस्वामी बालक सर्व श्री द्वारकेश जी के कर कमलों द्वारा, अखिल गुजरात पुष्टि मार्गीय वैष्णव परिषद द्वारा घोषित 'उत्कृष्ट चित्रकारी' सम्मान प्राप्त हुआ।

सन १९८३ में 'संदेश' अखबार ने आप के पहलवानी और चित्रकारी के क्षेत्र में हासिल उपलब्धियों पर एक वृहद आलेख भी प्रस्तुत किया था।

बहुत बार कुछ घटित हो रहा होता है, हम उस के अंतर्निहित कारणों से अनभिज्ञ रहते हैं - बाद में पता चलता है कि वैसा क्यूँ हुआ था| संभव है आदरणीय प्राण शर्मा जी द्वारा दिये गए मिसरे पर कहा गया तथा ५ अगस्त को ही इसी ब्लॉग पर प्रकाशित किया गया ये शेर भी शायद इस क्रम की एक कड़ी हो :-

आने वाली पीढ़ी की खातिर मिल जुल कर|
आओ भरें सारा लिटरेचर कम्प्युटर में||

पूज्य काकाजी हमेशा हमारी स्मृतियों में रहेंगे। उन के द्वारा स्थापित किए गए मानकों का एक अंश भी यदि हम हासिल कर सके तो यही हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी उन के प्रति|
जय श्री कृष्ण ............................

8 अगस्त 2011

वो "राखी सरताज", बीस बहना हों जिस के


rakhi


बहना की दादागिरी, भैया की मनुहार|
ये सब ले कर आ रहा, राखी का त्यौहार||
राखी का त्यौहार, यार क्या कहने इस के|
वो "राखी सरताज", बीस बहना$ हों जिस के|
ठूँस-ठूँस तिरकोन*, मिठाई खाते रहना|
फिर से आई याद, हमें राखी औ बहना||

सबसे पूर्व सगी-बड़ी, बहना का अधिकार|
उस के पीछे साब जी, लाइन लगे अपार||
लाइन लगे अपार, तिलक लगवाते जाओ|
गिन गिन के फिर नोट, तुरंत थमाते जाओ| 
मॉडर्न डिवलपमेंट, हुआ भारत में जब से|
ये अनुपम आनंद, छिन गया, तब से, सब से|| @



*मथुरा में समोसे को तिरकोन कहा जाता है [त्रिकोण जैसा दिखने के कारण]

$ अपनी बहन, चाची, काकी, भुआ, मौसी और मामियों की लड़कियां मिला कर
बीस बहनें भी होती थीं किसी किसी के| और भुआयें अलग से - बोनस में|

@ सुख भरी यादों के बीच दुखांत तो है, पर समय की सच्चाई भी यही है

छन्द - कुण्डलिया 

3 अगस्त 2011

संसार उस के साथ है जिस को समय की फ़िक्र है

सदियों पुरानी सभ्यता को बीस बार टटोलिए|
किसको मिली बैठे बिठाये क़ामयाबी बोलिए|
है वक़्त का यह ही तक़ाज़ा ध्यान से सुन लीजिए|
मंज़िल खड़ी है सामने ही, हौसला तो कीजिए||

चींटी कभी आराम करती आपने देखी कहीं|
कोशिश ज़दा रहती हमेशा, हारती मकड़ी नहीं|
सामान्य दिन का मामला हो, या कि फिर हो आपदा|
जलचर, गगनचर कर्म कर के, पेट भरते हैं सदा||

गुरुग्रंथ, गीता, बाइबिल, क़ुरआन, रामायण पढ़ी|
प्रारब्ध सबको मान्य है, पर - कर्म की महिमा बड़ी|
ऋगवेद की अनुपम ऋचाओं में इसी का ज़िक्र है|
संसार उस के साथ है जिस को समय की फ़िक्र है||

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ये ऊपर की पंक्तियाँ छन्द - हरिगीतिका पर हैं
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ये पंक्तियाँ 2212 x 4 की बहर वाली ग़ज़ल [बहरे रजज़ मुसमन सालिम] के अनुरूप तो हैं;
परन्तु, हरिगीतिका फॉर्म में होने के कारण ग़ज़ल की शर्तों के अनुरूप नहीं हैं|
जो लोग ग़ज़ल में महारत रखते हों और ये छन्द लिखना चाहते हों,
उनकी मदद स्वरूप एक उदाहरण मात्र है ये|
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चोट खा कर भी, शराफ़त कर रहा है आदमी - नवीन

नया काम
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सच तो ये ही है इनायत कर रहे हैं आदमी। 
चोट खा कर भी शराफ़त कर रहे हैं आदमी॥


ईंट-पत्थर का कलेवर ईंट-पत्थर हो गया।
देखते ही देखते साम्राज्य खंडर हो गया।
सब की लापरवाहियों से घर जो जर्जर हो गया।
सिर्फ़ उस घर की मरम्मत कर रहे हैं आदमी॥
चोट खा कर भी शराफ़त कर रहे हैं आदमी॥


हम बहुत कमज़ोर हैं हम पर तरस खाओ हुज़ूर।
नफ़रतों की आग पर कुछ प्यार बरसाओ हुज़ूर।
जो हुआ सो हो गया अब तो सुधर जाओ हुज़ूर।
रोज़ शैतानों से मिन्नत कर रहे हैं आदमी॥
चोट खा कर भी शराफ़त कर रहे हैं आदमी॥


कम बुरे बन्दे को चुन कर आबकारी सोंप कर।
जिम्मेदारों को वतन की जिम्मेदारी सोंप कर।
सेंधमार अहले-वतन को सेंधमारी सोंप कर।
बस इशारा भर सियासत कर रहे हैं आदमी॥
चोट खा कर भी शराफ़त कर रहे हैं आदमी॥


रहबरों को राह दिखलाएँ इसी उम्मीद में।
मरहमों पर काम करवाएँ इसी उम्मीद में।
काश! कल कुछ काम आ जाएँ इसी उम्मीद में।
अपने ज़ख़्मों की हिफ़ाज़त कर रहे हैं आदमी॥
चोट खा कर भी शराफ़त कर रहे हैं आदमी॥


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उनको लगता है फ़ज़ीहत कर रहा है आदमी
हमको लगता है मरम्मत कर रहा है आदमी

भीड़ ने बस ये कहा, हमको भी जीने दीजिये
वो समझ बैठे, बग़ावत कर रहा है आदमी

छीन कर कुर्सी, अदालत में घसीटा है फ़क़त
चोट खा कर भी, शराफ़त कर रहा है आदमी

सल्तनत के तख़्त के नीचे है लाशों की परत
कैसे हम कह दें, हुक़ूमत कर रहा है आदमी

मुद्दतों से शह्र की ख़ामोशियाँ यह कह रहीं
आज कल भेड़ों की सुहबत कर रहा है आदमी


फालातुन फालातुन फालातुन फाएलुन 
2122 2122 2122 212
बहरे रमल मुसमन महजूफ