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नज़्म - सोशल मीडिया - मुमताज़ अज़ीज़ नाज़ाँ

 


सुनो ऐ हमनवा मेरी

तिजारत का ज़माना है

यहाँ हर ख़ास दिन ब्यौपार का इक आम हिस्सा है

वगरना इस ज़माने में

मोहब्बत कौन करता है

माज़ी की गलियाँ - मुमताज़ अज़ीज़ नाज़ाँ



ये माज़ी की गलियाँ, वो यादों के घेरे

जहाँ रात-दिन हैं उदासी के फेरे

हैं अंजान से जाने-पहचाने चेहरे

मेरे दर्द-ओ-वहशत से बेगाने चेहरे

हैं ओढ़े मोहज़्ज़ब वफ़ा की नक़ाबें

पिये हैं जो जी भर ख़ुदी की शराबें

है इन पर चढ़ा उल्फ़तों का मुलम्मा

हैं बातें पहेली, अदाएँ मोअम्मा

हैं बदशक्ल चेहरे नक़ाबों के पीछे

हों लाख बरहम हवाएँ लेकिन चिराग़ दिल का बुझा नहीं है - मुमताज़ नाजाँ

हों लाख बरहम हवाएँ लेकिन चिराग़ दिल का बुझा नहीं है

जो तोड़ डाले हमारी हिम्मत जहाँ में ऐसी बला नहीं है
है कौन मक़्तूल कौन मुजरिम, लहू के छींटे बता रहे हैं

ज़माने भर पर है राज़ ज़ाहिर बस एक तुम को पता नहीं है
धरम का लो नाम और उस पर उठाओ फ़ितने कराओ दंगे

अगर ख़ुदा है तुम्हारा वाली तो क्या हमारा ख़ुदा नहीं है?
गुज़र चुके हैं सभी मुसाफ़िर, मकीं कहीं और जा बसे हैं

पड़ी है वीरान दिल की बस्ती कहीं भी कोई सदा नहीं है
ये शाह ए दौरां से जा के कह दो, है हम को मंज़ूर टूट जाना

अना की "मुमताज़" है रिवायत कि सर कहीं भी झुका नहीं है

मुमताज़ नाजाँ
बहरे कामिल मुसम्मन सालिम
मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
11212 11212 11212 11212


तख़य्युल के फ़लक से कहकशाएँ हम जो लाते हैं - मुमताज़ नाज़ां



तख़य्युल के फ़लक से कहकशाएँ हम जो लाते हैं
सितारे ख़ैरमक़दम के लिए आँखें बिछाते हैं

मेरी तनहाई के दर पर ये दस्तक कौन देता है
मेरी तीराशबी में किस के साए सरसराते हैं

हक़ीक़त से अगरचे कर लिया है हम ने समझौता
हिसार-ए-ख़्वाब में बेकस इरादे कसमसाते हैं

मज़ा तो ख़ूब देती है ये रौनक़ बज़्म की लेकिन
मेरी तन्हाइयों के दायरे मुझ को बुलाते हैं

बिलखती चीख़ती यादें लिपट जाती हैं क़दमों से
हज़ारों कोशिशें कर के उसे जब भी भुलाते हैं

ज़मीरों में लगी है ज़ंगज़हन-ओ-दिल मुकफ़्फ़ल हैं
जो ख़ुद मुर्दा हैंजीने की अदा हम को सिखाते हैं

वो लम्हेजो कभी हासिल रहे थे ज़िंदगानी का
वो लम्हे आज भी “मुमताज़” हम को ख़ूँ रुलाते हैं

मुमताज़ नाज़ां


बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222


एक नज़्म - मुमताज़ नाजाँ

सवाल

एक बेटी ने ये रो कर कोख से दी है सदा
मैं भी इक इंसान हूँ, मेरा भी हामी है ख़ुदा
कब तलक निस्वानियत का कोख में होगा क़िताल
बिन्त ए हव्वा पूछती है आज तुम से इक सवाल

जब भी माँ की कोख में होता है दूजी माँ का क़त्ल
आदमीयत काँप उठती है, लरज़ जाता है अदल्
देखती हूँ रोज़ क़ुदरत के ये घर उजड़े हुए
ये अजन्मे जिस्म, ख़ाक ओ ख़ून में लिथड़े हुए

देख कर ये सिलसिला बेचैन हूँ, रंजूर हूँ
और फिर ये सोचने के वास्ते मजबूर हूँ
काँप उठता है जिगर इंसान के अंजाम पर
आदमीयत की हैं लाशें बेटियों के नाम पर

कौन वो बदबख़्त हैं, इन्साँ हैं या हैवान हैं
मारते हैं माओं को, बदकार हैं, शैतान हैं
कोख में ही क़त्ल का ये हुक्म किस ने दे दिया
जो अभी जन्मी नहीं थी, जुर्म क्या उस ने किया

मर्द की ख़ातिर सदा क़ुर्बानियाँ देती रही
माँ है आदमज़ाद की, क्या जुर्म है उस का यही?
वो अज़ल से प्यार की ममता की इक तस्वीर है
पासदार ए आदमीयत, ख़ल्क़ की तौक़ीर है

ये वो है जो इस जहान ए हस्त का आधार है
कायनात ए बेकरां का मरकज़ी किरदार है
सारे नबियों को भी, वलियों को भी, और सादात को
सींचती है नौ महीने ख़ून से हर ज़ात को

मामता की, प्यार की इख़लास की मूरत है वो
क्यूं उसे तुम क़त्ल करते हो? कोई आफ़त है वो?
जब से आई है ज़मीं पर, क्या नहीं उस ने सहा
हर सितम सह कर भी अब तक करती आई है वफ़ा

जब वो छोटी थी तो उस को भाई की जूठन मिली
खिल न पाई जो कभी, है एक वो ऐसी कली
उस को पैदा करने का अहसां अगर उस पर किया
इस के बदले ज़िंदगी का हक़ भी उस से ले लिया

इज़्ज़त ओ ग़ैरत, कभी लालच का लुक़मा बन गई
बिक गई कोठों पे, आतिश का निवाला बन गई
ये अज़ल से जाने कितने दर्द सहती आई है
फिर भी बदक़िस्मत, अभागन, बेहया कहलाई है

मुस्तक़िल दी है अज़ीअत, इक ख़ुशी उस को न दी
आख़िरश अब तुम ने उस की ज़िंदगी भी छीन ली
क्यूं किसी औरत की हस्ती तुम पे आख़िर बार है
एक औरत इस जहाँ में प्यार है, बस प्यार है

ज़ंग ये दिल पर तुम्हारे क्यूं लगी है आज भी
क्या तुम्हें ख़ुद पर नहीं आती ज़रा सी लाज भी
ये तुम्हारी माँ भी है, बेटी भी है, बीवी भी है
हमसफ़र भी, रहनुमा भी, और फिर फ़िदवी भी है

ख़ूबरू है, दिलरुबा है, है सरापा दिलकशी
औरतों के दम से है दुनिया ए दिल की रौशनी
इक सुलगता कर्ब, इक दश्त ए बला रह जाएगा
हुस्न से ख़ाली जहां में और क्या रह जाएगा

ऐ गुनहगारान ए मादर, दुश्मन ए इंसानियत
ऐ इरम के क़ातिलो, ऐ पैकर ए शैतानियत
जिस को बेटी जान कर यूं क़त्ल तुम करते रहे
ये नहीं सोचा? के जो बेटी है, वो इक माँ भी है

आदमी के वास्ते फिर माँ कहाँ से लाओगे

मार दोगे माओं को तो तुम कहाँ से आओगे