बुशरा तबस्सुम |
1_
बेवजह......
बरसती
बूँदो का
ढूँढ
रही थी मै सिरा;
अचानक
तेरा
ख्याल आ गिरा ,
छाया
घन सा घनघोर
जिसका
कोई
ओर
न छोर,
हृदयांगन
भीग
गया जगह जगह,
और
वही
बेवजह।।
........
2_
अद्भुत
था ..
अप्राप्य
,
न
जाने क्या क्या निचोड़ा ...
मिला
नही बूँद भर ;
और
उस रोज़......
जब
तुम मिले ..
तो
बरसने लगा बेवजह'प्रेम',
संकोच
के छज्जे तले
खड़े
होकर भी मैं
हो
गई तरबतर ।।
..................
3_
अभी
फटक कर उड़ानी है
दिन
भर की हलकी बातें,
अभी
हृदयांगन को
सांत्वना
के लेप से लीपना है ;
रगड़
कर साफ करके रखे
कुछ
धुंधले हौंसले
आशाओं
की धूप मे रखे थे ....
समेटना
है उन्हे ,
तब
....
डाल
कर एक स्वप्न सलोना
आँखो
पर चढ़ा दूँगी
नींद
का भगौना ।
.........
4_
मै
अकसर.......
भावनाओं
के सागर किनारे ....
बैठकर,
डालती
रहती हूँ उसमे....
शब्द
प्रस्तर ,
देर
तक ....
दूर
तक ,
दायरों
के समान .......
फैलती
हैं जो....
मुझसे
उठती नही वो कविताएं,
मिट
जाती हैं बस
विस्तार
पाकर ।
.............
5_
तोड़ी
कोंपल.......आशाएं
मोड़ी
शाखा........इच्छाएं
काट
दी मुख्य जड़.....सपने
तैयार
है बोनसाई..........बेटी
............
6_
बहुत
स्पष्ट थी
तेरे
प्रेम की मृगतृष्णा ;
मै
ख्वाहिशों के काग़ज़ो से
कई
नाव भी बना बैठी ।
..............................
7_
छाए
थे जहाँ निराशा के घन ....
निर्मल
है अब वह
हृदयाकाश,
खिली
है फिर कुछ .....
ऊर्ध्वमुखी
श्वेत आस ,
बेरुख
ठण्डी ब्यार के विरुद्ध
लपेट
लिए हैं कुछ
हल्के
गर्म एहसास ,
नज़र
चुराते प्रकाशराज की
धूप
लग रही सुखद .......
ठहर
गया है अब मुझमे भी ...
देखो
एक
शरद ।।
..................
8_
बस
इसलिए
कि
सहूलियत रहे मुझे
बहुत
खुश रहना तुम ;
...
दुख
की कोई नदी पार करोगे
तो
भीग
मैं भी जाऊँगी ।
......................
9_
गर्मी
से मैले हुए दिन
बारिश
ने धोए
तो
सिकुड़ गए ,
इनसे
तो अच्छा था रात का थान ,
सांझ
और सवेरे ने पकड़ कर छोर
इधर
उधर बढ़ाए जो दो कदम
फैल
गया पाकर विस्तार
नही
पड़ा ज़रा भी कम ।।
फिलहाल
बरत लो
जस
का तस ...
शायद
यह भी सिकुड़ जाए
अगले
बरस ।
................
10_
जिस
क्षण
मैने
तुम्हे छुआ था
धूप
बन
ओ!
ओस के कण;
वो
जो सतरंगी आभा तुम से होकर गुज़री थी ,
वो
प्रेम था ;
तुम
इतरा स्वयं पर
पुलक
गए ...
और
फिर पात से ढुलक गए ।
ठहरते
कुछ देर तो रोक लेती
मैं
स्वयं मे तुमको
सोख
लेती ।।
......................
11_
हृदय
के आकाश पर
उदित
हुआ एक सूरज,
धीरे
धीरे चढ़ा
और
फैल गया ;
अब
नर्म रहे धूप
या
झुलसाए तन धाम
मुझे
स्वीकृत नही
इस
एहसास की शाम।
...............
12_
लपेटते
रहो
चाहे
....
कितने
भी साधन ,
दुशालो
की परत से 'सब्र',
या
कहलो ...
आश्वासन
;
ठिठुराती
ठंड सी है "याद"
जाने
कहाँ से आती है ....
और
बस ,
लग
जाती है ।
13_
झुर्रियाँ
****
साफ
तनी चादर पर
करवटें
बदलते रहे
अनुभव
;
और
सलवटों
के बीच
खो
गई कहीं
सारी
उम्र ।
2_
समतल
थी वह
पहाड़ी
सतह
तो
बह जाते थे समस्त
नयन
निर्झर व्यर्थ ,
बनाए
हैं कुछ सीढ़ीनुमा खेत ...
अब
सोख
लेते हैं जल
अनुभव
की फसल
काम
आएगी कल ।।
:-
बुशरा तबस्सुम