28 फ़रवरी 2014

वर्ष 1 अङ्क 2 मार्च 2014

नमस्कार

गुजरे वक़्त में कापीराइट जैसे कानून नहीं होते थे। शेर या छन्द कहने वाले कह देते थे जिन्हें पढ़ने / सुनने वाले माउथ पब्लिसिटी के ज़रिये दूर-दराज़ इलाक़ों तक पहुँचा देते थे। मेरे नज़दीक पूर्वजों के साहित्य के बड़ी तादाद में हम तक सही-सलामत पहुँचने का यह एक बड़ा कारण है। इस अङ्क में अच्छी-अच्छी रचनाओं को संकलित करने का प्रयास किया गया है। आशा करते हैं कि यह संकलन आप को पसन्द आयेगा।


कहानी

व्यंग्य

कविता / नज़्म

हाइकु

छन्द

ग़ज़ल

अन्य

नया प्रयास है, यदि कहीं कुछ कमी रह गई हो तो क्षमा करते हुये ध्यानाकर्षण अवश्य करवाएँ ताकि भविष्य में ऐसी ग़लतियों से बचा जा सके। आप सभी को रंग-पर्व होली की अग्रिम शुभ-कामनाएँ। 

सभी रचनाओं के अधिकार व दायित्व तत्सम्बन्धित लेखाकाधीन हैं। अगले अङ्क के लिये अपनी रचनाएँ 15 मार्च तक navincchaturvedi@gmail.com पर भेजने की कृपा करें। 

सब्जी वाला - डा. रमाकान्त शर्मा

शाम होते ही मैं अपनी बाल्कनी में कुर्सी लगा कर बैठ जाता हूँ। मेरी बाल्कनी के ठीक नीचे गली दो रास्तों में बँट जाती है। एक रास्ता बाहर मुख्य सड़क पर निकल जाता है और दूसरा रास्ता बाल्कनी के सामने से गुजरता हुआ उस झोंपड़पट्टी पर जाकर खत्म होता है, जो मुझे यहीं से बैठे-बैठे दिखाई देती है। इस झोपड़पट्टी में ज्यादातर मजदूर लोग रहते हैं। कुछ लोग मिलों में या फिर सोसायटियों में वाचमैन का काम भी करते हैं। घर की औरतें आसपास के घरों में झाड़ू-पौंछे का काम करने निकल जाती हैं। जो घर पर ही रहती हैं, वे झोंपड़पट्टी के सामने बने एक उजाड़ बगीचे की डौली पर बैठ जाती हैं। आपस में बतियाते और छोटी बच्चियों के बालों से जूएँ बीनते उनकी दोपहरी मजे में कट जाती है। उनके बच्चे अपनी माँ’ओं की उपस्थिति में बेफिक्री से उस उजड़े बगीचे में उछल-कूद मचाते रहते हैं।

धूप ढलते-ढलते उनकी महफिल उठ जाती है। उनके आदमियों के आने का टाइम होने लगता है और वे उनके लिए खाना बनाने की तैयारी करने लगती हैं। इस सबके बीच उनके कान गली से आने वाली घण्टी की आवाज सुनने के लिए बेचैन रहते हैं। बाल्कनी में बैठा –बैठा मैं भी उस घण्टी की आवाज सुनने के लिए बेचैन हो उठता हूँ। मुख्य सड़क से गली में घुसते ही वह अपने ठेले पर टँगी घण्टी को दो-तीन बार जोर से बजा देता है और फिर मेरी बाल्कनी के सामने उस लेम्प-पोस्ट के नीचे आकर खड़ा हो जाता है जो उन दोनों रास्तों का मिलन स्थल है। उसके आते ही झोंपड़-पट्टी की बहुत सी औरतें उसके ठेले के चारों ओर जमा हो जाती हैं और ठेले पर रखी सब्जियाँ लेने के लिए मानो टूट पड़ती हैं।

बाजार न जा पाने के कारण कई बार मैंने भी उससे सब्जियाँ ली हैं। उसकी सब्जियों की क्वालिटी बहुत अच्छी तो नहीं कही जा सकती, पर खराब भी नहीं होती। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह बाजार से कम दामों पर सब्जियाँ बेचता है। उसके आते ही गली में रौनक आ जाती है। उस भीड़ को सँभालना उसके लिए थोड़ा मुश्किल होता है। सभी औरतें खाना बनाने में होने वाली देर का हवाला देते हुए उससे पहले सब्जी देने का आग्रह करती रहती हैं। वह सब्जी तोलता हुआ बड़बड़ाता रहता है –“मेरे चार हाथ-पाँव नहीं हैं। सब्जी को पूरी तरह तोलने तो दो, फिर कहोगी, मैंने डण्डी मारी है। चलो एक-एक कर टोकरी पकड़ाओ।”

तभी कोई कहती है– “भइया, थोड़ा धनिया-मिर्च तो डाल दो।” वह आगबबूला हो उठता है – “मुफ्त का नहीं आता धनिया-मिर्ची, पैसे लगेंगे।”

ठीक है-ठीक है, ले लेना पैसे। पर, थोड़ा अच्छी तरह डाल देना, चटनी बनानी है।”

भाभी, अच्छा रहेगा, किसी दिन मेरी चटनी बना दो। पैसे का रुबाब डाल रही हो, मेरे पिछले पैसे तो चुका दो। पच्चीस रुपये बकाया हैं तुम पर।”

कभी तुम्हारे पैसे रखे हैं क्या? देर-सबेर ही सही, पर दे देते हैं।” यह कहते-कहते वह अपना झोला आगे बढ़ा देती है और सब्जी वाला बुरा सा मुँह बनाता हुआ उसके झोले में धनिया और मिर्ची डाल देता है।

किसी और औरत की टोकरी में छाँटी गई सब्जी को तराजू में रखता हुआ वह फिर बड़बड़ाने लगता है- “भाभी, पिछली बार भी तुमने पूरे पैसे नहीं दिये थे। इस बार तो सारा हिसाब चुकता कर दो। नहीं तो अगली बार कहीं और से सब्जी ले लेना, मेरे ठेले पर मत आना।” तुली हुई सब्जी को अपने झोले में डलवाते हुए वह कहती है - “भइया पिछली बार के पन्द्रह रुपये लेकर आई हूँ। इस बार के पैसे कल दे दूँगी।”

वह पैसे लेकर गिन कर जेब में डालते हुए कहता है – “उधार मोहब्बत की कैंची है, भाभी। कल से बस नकद ही लेना, समझी। मुझे भी अपनी गृहस्थी चलानी है।”

तभी उसे सुनाई देता है – “ये लो भइया, मैं तो आज पैसे लेकर आई हूँ। ये पकड़ो अपने पैसे। फिर न कहना दो दिन से पैसे नहीं दिए। आज, मुन्नी के बापू खूब टमाटर वाली आलू की सब्जी बनाने को कह गए हैं। आधा किलो आलू और आधा किलो टमाटर जल्दी से तोल दो”। वह पैसे हाथ में लेकर गिनता है और कहता है – “बड़ा अहसान कर रही हो दीदी। एक हफ्ते बाद पैसे दे रही हो और मन में जो आ रहा है वो भी सुनाती जा रही हो। चलो, यह तो हुए पहले के पैसे, अब आलू-टमाटर के पैसे भी दे दो फटाफट, तभी तोलूँगा समझी।”

भइया, दीदी कहते हो और ऐसी बात भी करते हो। आज मेरे पास और पैसे नहीं हैं। कल तुम्हारे पैसे भी दे दूंगी और नकद देकर सब्जी खरीदूंगी।” उसकी आवाज की तुर्शी गायब हो गई है और स्वर धीमा हो गया है।
ठीक है, आज दे देता हूँ। खुलाओ जीजाजी को खूब टमाटर वाली सब्जी। हाँ, कल पैसे नहीं दिए तो आगे से मेरे पास उधार लेने मत आना।”

 यही क्रम तब तक चलता रहता है जब तक आखिरी औरत उसके ठेले पर बनी रहती है। सब्जियों से भरा उसका ठेला लगभग खाली हो जाता है। वह अपनी जेब से बीड़ी निकाल कर और उसे सुलगा कर वहीं जमीन पर बैठ कर आखिरी कश तक दम लगाता है और फिर अपना ठेला लेकर चला जाता है। उसके जाते ही गली में शान्ति सी छा जाती है और वह जगह सुनसान लगने लगती है जहाँ अभी कुछ देर पहले तक उसका ठेला खड़ा हुआ था। गहराती शाम की कालिमा बाल्कनी में उतर चुकी होती है और मैं भी कुर्सी फोल्ड कर उसे दीवार से टिका कर घर के अन्दर घुस जाता हूँ।

इधर दो-तीन दिन से सब्जी वाला नजर नहीं आ रहा है। झोंपड़-पट्टी की औरतें ईद के चाँद सी उसकी राह देखती खड़ी रहतीं हैं और फिर मायूसी से अपने-अपने घरों को लौट जातीं हैं। उनकी तरह मुझे भी उसका इन्तज़ार रहता है। बाल्कनी में बैठना बेकार सा लगता है और कान उसकी घण्टी सुनने के लिए बेचैन बने रहते हैं। तीसरे दिन भी जब वह नहीं आया तो थोड़ी चिंता होने लगी है। गली में इन्तज़ार करती औरतें भी चिंतित नजर आ रही हैं, उनकी तरह मैं भी सोचने लगा हूँ कि कहीं वह बीमार न हो गया हो। कितनी अजीब बात है, अपने-अपने कारणों से मैं और वे औरतें उस सब्जी वाले का बेताबी से इन्तज़ार कर रहे हैं, पर लगता है वह तो कहीं गायब ही हो गया है।

 करीब एक हफ्ते बाद अचानक ही वह घण्टी सुनाई दी तो मैं तुरन्त ही बाल्कनी में निकल आया। उसकी घण्टी की आवाज सुन कर झोंपड़-पट्टी की तमाम औरतें भी जैसे भागी चली आ रही थीं। हमेशा की जगह उसने अपना ठेला खड़ा किया तो उस पर प्रश्नों की बौछार होने लगी – “कहाँ चले गए थे, भइया? “बीमार-वीमार तो नहीं हो गए थे?” “गांव चले गए थे क्या?” वह हाथ उठा कर सबको शांत करने का प्रयास कर रहा था। शोर थोड़ा थमा तो उसने कहा – “क्या करें, सब्जियाँ इतनी महँगी जो हो गई हैं। यहाँ तो सबकुछ उधार पर चलता है, पर वहाँ मण्डी में कोई हमारा ससुर नहीं बैठा है जो हमें उधारी पर सब्जियाँ दे दे। फिर, इतनी महँगी सब्जियाँ यहाँ खरीदेगा कौन? ऐही वजह से कुछ दिन हमारा आना नहीं हुआ इहाँ। बड़ी मुश्किल से जुगाड़ बिठा कर ठेला लगाया है। अब तुम सब लोग भी ध्यान से सुन लो, जिस-जिस के पास हमारा पैसा निकलता है, वह सब लौटा दें। यह भी कहे देता हूँ कि उधार-सुधार कुछ नहीं मिलेगा और सब्जियाँ भी अब पहले के भाव पर नहीं मिलेंगी। महँगी खरीद है तो महँगी बेचेंगे। भाई हमारे भी तो बाल-बच्चे हैं। समझ गए न?”

उसकी बात सुन कर सकता सा छा गया। कुछ औरतें उसे पैसे पकड़ाते और सब्जियाँ खरीदते नजर आईं। कुछ थोड़ा इन्तज़ार करके मायूसी से लौट गईं। पर, कुछ हठी औरतें उसके पास अभी भी डटी थीं। उनके बीच वार्तालाप काफी उग्र हो गया था – “ तुम तो ऐसा कह रहे हो भइया, जैसे हम तुम्हारा पैसा लेकर कहीं भाग गए हैं। हाथ में पैसा आते ही उधार चुकता करते हैं या नहीं। जब दीदी, दादी और भाभी का रिश्ता जोड़ते हो तो फिर ऐसा क्यों कर रहे हो?”

वह झल्ला गया था – “तुम लोग मेरी बात भी तो समझने की कोशिश करो। महँगाई सर चढ़ कर बोल रही है। सब सब्जियों के भाव दुगुने-तिगुने हो गए हैं। मैं भी क्या करूँ। चलो, अगले दिन पैसे दे दो तब भी मेरा काम चल जाए, पर कई-कई दिन तक पैसा न मिले तो मैं किसके पास जाकर फरियाद करूँ। पैसे नहीं हों तो बंद कर दो सब्जियाँ खाना। तुम्हें भी फुरसत और मुझे भी फुरसत। कहीं और जाकर सब्जियाँ बेच लूँगा मैं।”

काफी देर तक बहस चलती रही और फिर अगले दिन पैसे चुकाने का वायदा मिलने पर उसने सब्जियाँ तोलनी शुरू कीं। एक बार फिर से पुराना दृश्य साकार हो गया। औरतें सब्जी लेने के लिए टूट पड़ीं। जो निराश होकर अपने घर चली गई थीं, वे भी वापस लौट आईं। गली फिर से गुलजार हो गई थी।

हमेशा की तरह थोड़ी देर में ही उसका ठेला लगभग खाली हो गया था। बहुत कम सब्जियाँ बची रह गई थीं। उसने जेब से बीड़ी निकाल ली थी। वह उसे सुलगाने ही लगा था कि तभी उसकी नजर अधेड़ उम्र में बूढी हो आई उस औरत पर पड़ी जो सबके चले जाने के बाद चुपचाप आकर ठेले के पास खड़ी हो गई थी। उसे वहाँ यूँ खड़ा देख कर उसने पूछा था – “क्या बात है ताई, ऐसे क्यों खड़ी है। मेरे पैसे लाई है क्या? ला दे।”

वह कुछ क्षण चुप रही, फिर बोली – “कैसे बताऊँ भइया, अभी तो मेरे पास एक भी पैसा नहीं है। कुछ दिन और इन्तज़ार कर ले, तेरा सारा पैसा चुकाऊँगी मैं। बस, आज के लिए मुझे कुछ आलू दे दे। जिंदगी भर तेरा अहसान नहीं भूलूँगी मैं।”

ज्यादा बातें मत बना ताई। तुझे मालूम है न मैंने उधार देना बंद कर दिया है। फिर तुझे तो उधार देने का सवाल ही नहीं है, कितने ही दिनों से तूने सिर्फ उधार लिया ही लिया है, चुकाने की तो कभी सोची ही नहीं है। बोल मैं गलत कह रहा हूँ तो?”

क्या बोलूँ मैं। मेरा मरद पिछले एक महीने से बीमार पड़ा है, उसका बुखार उतरता ही नहीं। मेरी हड्डियों में भी अब उतनी ताकत नहीं बची है। मजदूरी करके जो थोड़ा बहुत लाती हूँ, वह उसकी दवाइयों के लिए ही पूरा नहीं पड़ता। मैं भी मजदूरी करते-करते थक गई हूँ। ऐसा लग रहा है जैसे शरीर में जान ही न हो। दो दिन से मजदूरी पर जाने की हिम्मत नहीं हुई है मेरी। तेरे ताऊ और मेरे मुँह में दो दिन से अन्न का एक दाना भी नहीं गया है। तू कुछ आलू दे देगा तो कुछ पेट में चला जाएगा।”

देख ताई, मैं उधार देते-देते थक गया हूँ, पर तुम सब उधार लेते-लेते थके नहीं हो। उधार लेने के लिए तुम्हारे पास कोई न कोई कहानी तैयार रहती है। अगर कल मेरे सारे पैसे लौटाने का वादा करे तो चल एक किलो आलू ले जा।”

नहीं भइया, झूठा वादा कैसे करूँ। मैंने अपना पूरा हाल बता दिया है। हाँ, तबीयत ठीक होते ही हम दोनों मजदूरी करेंगे और तब तेरे पैसे जरूर लौटा देंगे।”

वह जोर से हँस पड़ा था – “ताई तेरा क्या भरोसा, जैसी हालत बता रही है, कल फिर आ जाएगी उधार लेने। मैं कब तक यह सब करता रहूँगा और क्यों? मैंने दुनिया का ठेका थोड़े ही ले रखा है। जा मुझे तो तू माफ ही कर दे।”

वह थोड़ी देर चुपचाप खड़ी रही, फिर भारी कदमों से झोंपड़-पट्टी की ओर चल दी।

उसके जाते ही उसने बीड़ी सुलगाई और जमीन पर बैठ कर लम्बे-लम्बे कश लगाने लगा। आखिरी कश लेकर उसने बीड़ी फेंकी और अपनी जूती की रगड़ से उसे बुझा कर उठ खड़ा हुआ। ठेला उसने मुख्य सड़क पर ले जाने के लिए आगे बढ़ा दिया तो मैं भी बाल्कनी में अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। आज की इस सारी बात ने मेरे मन को उदास ही नहीं, दु:खी सा कर दिया था। कैसी-कैसी जिंदगी जी रहे हैं लोग, यह सोचते-सोचते मैं अपनी कुर्सी फोल्ड कर ही रहा था कि सब्जी वाले को वापस लौटते देख कर रुक गया।


लेम्पपोस्ट के नीचे लाकर उसने ठेला खड़ा कर दिया और फिर एक थैली में आलू और कुछ सब्जियाँ भरने लगा। अब थैला लेकर वह झोंपड़पट्टी की तरफ चल दिया है। मुझे पता है, उसके कदम उस ताई के झोंपड़े पर जाकर ही रुकेंगे। जैसे-जैसे उसके कदम झोंपड़-पट्टी की ओर बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे मेरी आँखों के रास्ते गर्म पानी बह कर गालों पर लुढ़कता आ रहा है।

प्यार किया तो मरना क्या - काका हाथरसी

जब मैं बीस बरस का था तो एक ज्योतिषी ने मेरा हाथ देख कर मेरी माँ से कहा था कि 'यह चालीस बरस पार कर ले तो बहुत समझो।' मेरे ऊपर इस घोषणा का कोई ख़ास असर नहीं पड़ा था क्यों कि मेरा स्वास्थ्य बहुत ख़राब था। हर समय कफ़ की शिकायत रहती थी, दातों में पायरिया था। मैंने एक–एक कर के दाँत निकलवाना शुरू कर दिया। नियमित रूप से प्रात: और सायं आठ–दस किलोमीटर टहलना, दौड़ लगाना, नीम की पत्तियाँ चबाना, बकरी का दूध पीना तथा हरे पत्तों की सब्ज़ियों का सेवन चालू कर दिया।

इन सब चीज़ों का अनुकूल प्रभाव हुआ और उमर चालीस को पार कर गई। पुस्तकालय में बैठ कर नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन, विद्वान, कलाकार और महात्माओं के सत्संग इत्यादि के कारण मेरा झुकाव साहित्य संगीत और कला की ओर होने लगा। कवि सम्मेलनों के निमंत्रण आने लगे, फिर तो पता ही नहीं लगा कि हम कब साठा के पाठा हो गए। ज्योतिषी की भविष्यवाणी भी भूल गए। लेकिन जब सत्तर पार हो गए, तो हमने देखा कि हमारे अनेक साथी भगवान को प्यारे हो गए, हम स्वस्थ–मस्त बने हास्य–व्यंग्य में और अधिक व्यस्त हो गए। मरना तो अलग, बीमार होने के लिए भी अवकाश नहीं मिलता था। धीरे-धीरे जीवन की नैया अस्सी के किनारे आ लगी। अब लोगों ने कहना शुरू कर दिया — 'असिया सो रसिया'। वास्तव में हम कुछ रसीले हो भी गए थे। इतनी उमर में भी अपने को सही–सलामत देख कर हमें खुद ताज्जुब होता। कहीं नज़र न लग जाए, इसलिए हमने कहना शुरू कर दिया कि 'अब हम मरना चाहते हैं।' हमारे मुँह से निकलना था कि लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई।

युवा हास्य कवि सोचने लगे कि बस काका के मरते ही अपनी तूती बोलने लगेगी। साहित्यकार सोचने लगे कि काका की वजह से गीत मर गए हैं और मंच पर हास्य की धारा बहने लगी है, वह समाप्त होगी तो गीतकारों का कल्याण होगा। परिवार के लोग सोचने लगे कि अच्छा है, भगवान सुन ले तो बीमे की रकम मिल जाए। हमें लगने लगा कि अब हमारा वक्त नज़दीक आ गया है अत: ऐसे स्थान पर चले जाना चाहिए जहाँ गंगा नज़दीक हो, क्यों कि गंगा से हमारा लगाव शुरू से ही रहा है। हमने लोगों से कहना शुरू कर दिया कि 'अब हम मरने वाले हैं, इसलिए हाथरस छोड़कर बिजनौर रहा करेंगे। वहाँ गंगा है और हमारी भतीजी के पति डॉ. गिरिराज शरण भी हैं, जो हमें बड़े प्यार से रखेंगे।'

जब हम बिजनौर पहुँचे तो डॉ. गिरिराज बोले—'काका अच्छा हुआ, जो आप इधर आ गए। बिजनौर मरने के लिए बहुत अच्छी जगह है लेकिन यहाँ मेरे चेले कुछ डाक्टर हैं, जो आपको आसानी से नहीं मरने देंगे।' हम निराश हो गए और कुछ दिन वहाँ बिता कर दिल्ली चले आए। दिल्ली में अपनी दूसरी भतीजी के पति डा. अशोक चक्रधर के घर हम ठहरे।

अशोक चक्रधर बोले—काका आपने मरने की ठान ली है, तो फिर दिल्ली में मरना ठीक रहेगा। नेता टाइप लोग सब राजधानी में ही मरते हैं। आप देख लेना, जिस दिन आपकी मृत्यु होगी, उस दिन मैं सारी दिल्ली बंद करा दूँगा। राजघाट से धोबीघाट तक जुलूस ही जुलूस दिखाई पड़ेगा। केंद्रीय मंत्रिमंडल आपके शव पर पुष्प चढ़ाने आएगा। मैं आपके रथ पर खड़ा होकर कमेंट्री करूँगा जिसे दूरदर्शन वाले दिखाते रहेंगे। आपका हो जाएगा काम और मेरा हो जाएगा नाम। बोलो मंजूर हो तो इंतज़ाम करूँ।

इतने में ही वहाँ कर्णवास गंगा तट वाले एक पंडा आ गए जो गत पचास वर्षों से हमसे परिचित थे। पंडा जी बोले, देखो काका, आप कवि हैं, गंगा प्रेमी हैं और किसी महात्मा से कम नहीं हैं। मरने का विचार आपका उत्तम है, हमारे देश में अनेक मुनियों ने इच्छा मृत्यु का वरण किया है, जब भी आप चाहेंगे तो हम कर्णवास में पहले से ही आपकी चिता सजवा देंगे या चाहेंगे तो जल समाधि दिलवा देंगे। लेकिन जबतक आपके होशहवास दुरुस्त हैं तब तक हमारी राय मानें, तो एक गाय पुन्न कर दें।

हमें पंडित जी की बात जँची नहीं। गर्मी भी काफ़ी पड़ने लगी थी इसलिए मसूरी चले गए। वहाँ नित्य प्रति बड़े–बड़े लोग कैमिल्स बैक रोड़ पर टहलने जाते हैं। उनसे भी हमने चर्चा कर के राय माँगी। उनका कहना था कि 'मैदानी इलाकों में तो सभी मरते हैं लेकिन पहाड़ पर मरना सबके नसीब में नहीं होता। यहाँ मरने का मज़ा ही कुछ और है। यहाँ न लकड़ियों का झंझट है और न चिता सजाने का झगड़ा। डॉक्टर भी आसानी से नहीं मिलता, जो मरते को बचा ले। चार–पाँच मित्र मिल कर लाश को पहाड़ की चोटी से लुढ़का देंगे। चारों ओर बर्फ से ढकी हुई श्वेत धवल चोटियाँ आपका स्वागत करेंगी। बड़े–बड़े तीर्थ यात्रियों की बसें जब यहाँ खड्डे में गिरती हैं तो सभी सीधे स्वर्ग चले जाते हैं। अजी और तो और पांडव तक यहाँ गलने को चले आए थे। आप भी जीवन–मुक्त हो जाएँगे, बार–बार मनुष्य योनि में नहीं भटकना पड़ेगा।'

इस बीच हमें मथुरा रेडियो से एक कार्यक्रम का निमंत्रण मिल गया। हम मथुरा चले आए, वहाँ बृज कलाकेंद्र वाले भैया जी से भेंट हुई। भैया जी से जब बात छिड़ी तो वे बोले —काका, मरने के चक्कर में आप इधर–उधर क्यों भटक रहे हैं, पूरा बंगाल इस शुभकर्म के लिए यहाँ आता है। ब्रज में सभी देवी देवताओं का निवास है। मथुरा में आप मरेंगे तो सीधे मोक्ष को प्राप्त होंगे। उस दिन हम नौटंकी भी करा देंगे। होली दरवाज़े पर झंडा लगवा दिया जाएगा। आप मोक्ष धाम को जाएँगे और हम रबड़ी खुरचन उड़ाएँगे। फिर आपकी पुण्यतिथि पर प्रति वर्ष नगाड़ा बजता रहेगा। चंदा होता रहेगा और धंधा चलता रहेगा। बोलो मंज़ूर हो तो आख़िरी घुटवा दूँ बादाम–पिस्ते की केसरिया ठंडाई। हमने सोचकर जवाब देने के लिए कहते हुए उनसे विदा ली और हाथरस आ गए। 

हाथरस में हमारे मरने की चर्चा आग की तरह फैल गई। सभी शुभचिंतक इकट्ठे हो गए। हमारा बेटा लक्ष्मी नारायण बोला — काकू, आपको सब लोग बहका रहे हैं, आपकी कुंडली साफ़ कह रही है कि आप ज़मीन पर मर ही नहीं सकते। अभी तो आपको एक अमरीका यात्रा और करनी है। मैं प्रोग्राम बना देता हूँ । जाने से पहले पचास लाख का बीमा भी करा दूँगा। अगर हवाई जहाज़ गिर गया, तो आपको बिना कष्ट मौत मिलेगी, और इधर मैं बीमा की रकम डकार जाऊँगा। ब्याज से प्रतिवर्ष श्राद्ध कर दिया करूँगा, फिर सैकड़ों विशिष्ट व्यक्तियों के साथ मरने का मज़ा ही कुछ और है।

इस चकल्लस में कुछ लोगों ने गोष्ठी जमा ली। कविता पाठ हुए और पत्रकार सम्मेलन हुआ। हमें महसूस हुआ कि अभी तो हमारी आवाज़ में पूरी कड़क है, तभी सामने बैठी एक बुढ़िया पर हमारी नज़र गई, जिसकी सफ़ेद ज़ुल्फ़ों पर लाइट मार रही थी। हम उस पर मर गए और मंच पर ही अड़ गए, मित्र लोग ताड़ गए और सबने मिलकर घोषणा कर दी. . .काका अठासी के हो गए हैं। अब पूरा शतक बनाएँगे और हाथरस में ही मरेंगे। शोर–शराबा सुनकर काकी आ गईं तो सब भाग लिए और हम भीगी बिल्ली बनकर उसके साथ बेडरूम में यह कहते हुए चले गए. . .

बुढ़िया मन में बस गई, लाइट मारें केस।
चल काका घर आपुने, बहुत रह्यो परदेस।।

[अनुभूति से साभार]

ईमानदारी - कमलेश पाण्डेय

कबीरा कहे....
ईमान से, ईमानदारी की खटिया अभी नब्बे डिग्री तक नहीं खड़ी हुई.

साधो! कुछ दिन हुए ईमानदारी कुछ इस तरह् चर्चा में आई कि लगा ये चर्चा तो पूरी ईमानदारी से हो रही है. पूरे देश में ईमान का डोलता पेंडुलम रुक नहीं गया तो कुछ सहमा-सहमा डोलता नज़र आया. ईमान का एक स्तूप सा उभर आया बेईमानी के जंगल में और उसकी एक अदद प्रतिकृति हर गली कूचे में चमकने लगी. ईमान के भिक्षु ‘हा हंते-हा हंते’ चिल्लाते घूमने लगे. उनके चहरे के तेज़ के आगे हर शै काली दिखने लगी.

उधर खुद ईमान पर इतनी उंगलियाँ उठीं कि बगलें शरीर में जहां भी थीं झाँक-झाँक कर देखी जाने लगीं. ईमान का सिक्का खरा-खरा सा चमकने लगा. खोटे सिक्के सेफों में छुपा दिए गए. सारी बिल्लियाँ हज की दिशा में हसरत से यूं देखने लगीं मानों वीज़ा-पासपोर्ट की व्यवस्था होते ही निकल पड़ेंगी क्योंकि सत्तर चूहे तो हर बिल्ली अपने पूरे करियर में खा ही लेती है. अपना-अपना ईमान अंटी में दबाये हर खासो-आम खुले में आ गया और उसे मैडल की तरह प्रदर्शित करने लगा. ईमानदारी का एक मजमा- सा लग गया. देखते-देखते ईमानदारी आम हो चली.

ईमानदारी सर चढ़ कर बोलने लगी. ज़ुबानों पर थिरकने लगी. स्क्रीनों पर चमकने लगी. सडकों पर लेट गई. धरने पर बैठ गयी. तीन का तेरह वसूलने वाले ऑटो-रिक्शा की पीठ पर चिपक गयी. ईमानदारी बिजली के तारों में करंट-सी दौड़ी, पानी की  पाईपों से बूँद-बूंद रिसी. वह ट्रैफिक हवलदार के चालान-बुक पर स्याही की बूँद-सी टपकी, दंगा-पुलिस के जिरह-बख्तर के अन्दर पसीने-सी चुह्चुहाई. वो बाबुओं की लपलपाती उँगलियों पर नन्हे-नन्हें कैमरों का डंक मारने लगी. वो निराश लोमड़ी के खट्टे अंगूरों में मिठास का भ्रम भरती नज़र आई. उम्मीद की लहरों पर बैठ वो राजधानी में खूब लहराई.

फिर ईमानदारी एक रोज़ गद्दी पर जा बैठी. वो राजमहल में टहली. जनपथ और राजपथ पर भी सुगबुगाई. फिर एक आबंटित सरकारी बंगले के गेट पर रास्ता रोके नज़र आई. आगे वो घर-घर में घुसी, झोंपड़- पट्टियों में रुकी, देर रात छापे मारती मिली. सेक्रेटेरियेट की फाइलों से जूझी, जांचों में उलझी. कभी घबराई और भीड़ से बचकर भागती नज़र आई. बयान-दर बयान दिए, बहसों में अझुराई, कभी अड़ गई तो कभी कतरा के निकल आई. इलज़ाम उठाये, इलज़ाम लगाए, बेईमानी के पैतरें खुद भी आजमाए.

कुछ दिन हुए ईमानदारी ज़मीन छोड़ कर वृहतर आसमानों की ओर निकल भागी.

कबीरा कहे- ईमान सेईमानदारी तो दिलों में होती है- टोपी या गद्दी में नहीं. सच मानों तो सच, नहीं तो ठिठोली है.


बुरा न मानो होली है.

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की - नज़ीर अकबराबादी

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
खम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।

हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में आहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे
कुछ घुँघरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की

गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।

और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के,
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।।

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला - महादेवी वर्मा

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला

घेर ले छाया अमा बन
आज कज्जल -अश्रुओं में रिमझिमा ले यह घिरा घन
और होंगे नयन सूखे
तिल बुझे औ 'पलक रूखे
आर्द्र चितवन में यहाँ
शत विद्युतों में दीप खेला !
पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला !

अन्य होंगे चरण हारे
और हैं जो लौटते ,दे शूल को संकल्प सारे
दुःखव्रती निर्माण उन्मद
यह अमरता नापते पद
बांध देंगे अंक -संसृति
से तिमिर में स्वर्ण बेला !

दूसरी होगी कहानी
शून्य में जिसके मिटे स्वर ,धूलि में खोयी निशानी
आज जिस पर प्रलय विस्मित
मैं लगाती चल रही नित
मोतियों की हाट औ '
चिनगारियों का एक मेला !

हास का मधु-दूत भेजो
रोष की भ्रू -भंगिमा पतझार को चाहो सहेजो !
ले मिलेगा उर अचंचल
वेदना -जल ,स्वप्न शतदल
जान लो यह मिलन एकाकी
विरह में है अकेला !

पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला

भारतीय रेल की जनरल बोगी - प्रदीप चौबे

भारतीय रेल की जनरल बोगी
पता नहीं
आपने भोगी
या नहीं भोगी

एक बार हमें करनी पडी यात्रा
स्टेशन पर देख कर
सवारियों की मात्रा
हमारे ,पसीने छूटने लगे ,
हम झोला उठा कर
घर की तरफ़ फूटने लगे
तभी एक कुली आया
मुस्करा कर बोला
अन्दर जाओगे
मैंने कहा पहुचाओगे ?

वो बोला
बड़े -बड़े पार्सल पहुचाये हैं
आपको भी पहुँचा दूँगा
मगर रूपये पूरे पचास लूँगा
हमने कहा पचास रूपैया ?
वो बोला हाँ भइया .
तभी गाडी ने सीटी दे दी
हम झोला उठा कर धाये
बड़ी मुश्किल से
डिब्बे के अन्दर घुस पाए
डिब्बे का दृश्य
और घमासान था
पूरा डिब्बा
अपने आप में हिन्दोस्तान था

लोग लेटे थे ,बैठे थे ,खड़े थे
जिनको कहीं जगह नही मिली
वे बर्थ के नीचे पड़े थे.
एक सज्जन
फर्श पर बैठे थे ,ऑंखें मूंदे
उनके सर पर
अचानक गिरीं पानी की बूंदे
वे सर उठा कर चिल्लाये ,कौन है -कौन है ?
बोलता क्यों नही
पानी गिरा कर मौन है
दीखता नहीं
नीचे तुम्हारा बाप बैठा है ?
ऊपर से आवाज आयी
छमा करना भाई ,
पानी नहीं है
हमारा छः महीने का
बच्चा लेटा है ,
कृपया माफ़ कर दीजिये
और आप अपना सर नीचे कर लीजिये
वरना ,बच्चे का क्या भरोसा ?

तभी डिब्बे में जोर का हल्ला हुआ
एक सज्जन चिल्लाये -
पकडो -पकडो जाने न पाए
हमने पुछा क्या हुआ -क्या हुआ
सज्जन रो कर बोले
हाय -हाय ,मेरा बटुआ
किसी ने भीड़ में मार दिया
पूरे तीन सौ से उतार दिया
टिकट भी उसी में था .....?
एक पड़ोसी बोला -
रहने दो -रहने दो
भूमिका मत बनाओ
टिकट न लिया हो तो हाँथ मिलाओ
हमने भी नहीं लिया है
आप इस कदर चिल्लायेंगे
तो आप के साथ
हम नहीं पकड लिए जायेंगे?
एक तो डब्लू .टी जा रहे हो
और सारी दुनिया को चोट्टा बता रहे हो?

अचानक गाडी
बड़े जोर से हिली
कोई खुशी के मारे चिल्लाया -
अरे चली ,चली
दूसरा बोला -जय बजरंगबली
तीसरा बोला -या अली
हमने कहा -
काहे के अली और काहे के बली ?
गाड़ी तो बगल वाली जा रही है
और तुमको
अपनी चलती नजर आ रही है ?

प्यारे
सब नजर का धोखा है
दरअसल यह रेलगाडी नहीं
हमारी जिंदगी है
और जिंदगी में धोखे के अलावां
और क्या होता है