शाम
होते ही मैं अपनी बाल्कनी में कुर्सी लगा कर बैठ जाता हूँ। मेरी बाल्कनी के ठीक नीचे
गली दो रास्तों में बँट जाती है। एक रास्ता बाहर मुख्य सड़क पर निकल जाता है और दूसरा
रास्ता बाल्कनी के सामने से गुजरता हुआ उस झोंपड़पट्टी पर जाकर खत्म होता है, जो मुझे यहीं से बैठे-बैठे दिखाई देती है। इस
झोपड़पट्टी में ज्यादातर मजदूर लोग रहते हैं। कुछ लोग मिलों में या फिर सोसायटियों में
वाचमैन का काम भी करते हैं। घर की औरतें आसपास के घरों में झाड़ू-पौंछे का काम करने
निकल जाती हैं। जो घर पर ही रहती हैं, वे झोंपड़पट्टी के सामने
बने एक उजाड़ बगीचे की डौली पर बैठ जाती हैं। आपस में बतियाते और छोटी बच्चियों के बालों
से जूएँ बीनते उनकी दोपहरी मजे में कट जाती है। उनके बच्चे अपनी माँ’ओं की उपस्थिति
में बेफिक्री से उस उजड़े बगीचे में उछल-कूद मचाते रहते हैं।
धूप
ढलते-ढलते उनकी महफिल उठ जाती है। उनके आदमियों के आने का टाइम होने लगता है और वे
उनके लिए खाना बनाने की तैयारी करने लगती हैं। इस सबके बीच उनके कान गली से आने वाली
घण्टी की आवाज सुनने के लिए बेचैन रहते हैं। बाल्कनी में बैठा –बैठा मैं भी उस घण्टी
की आवाज सुनने के लिए बेचैन हो उठता हूँ। मुख्य सड़क से गली में घुसते ही वह अपने ठेले
पर टँगी घण्टी को दो-तीन बार जोर से बजा देता है और फिर मेरी बाल्कनी के सामने उस लेम्प-पोस्ट
के नीचे आकर खड़ा हो जाता है जो उन दोनों रास्तों का मिलन स्थल है। उसके आते ही झोंपड़-पट्टी
की बहुत सी औरतें उसके ठेले के चारों ओर जमा हो जाती हैं और ठेले पर रखी सब्जियाँ लेने
के लिए मानो टूट पड़ती हैं।
बाजार
न जा पाने के कारण कई बार मैंने भी उससे सब्जियाँ ली हैं। उसकी सब्जियों की क्वालिटी
बहुत अच्छी तो नहीं कही जा सकती, पर खराब भी नहीं होती। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वह बाजार से कम दामों पर सब्जियाँ
बेचता है। उसके आते ही गली में रौनक आ जाती है। उस भीड़ को सँभालना उसके लिए थोड़ा मुश्किल
होता है। सभी औरतें खाना बनाने में होने वाली देर का हवाला देते हुए उससे पहले सब्जी
देने का आग्रह करती रहती हैं। वह सब्जी तोलता हुआ बड़बड़ाता रहता है –“मेरे चार हाथ-पाँव
नहीं हैं। सब्जी को पूरी तरह तोलने तो दो, फिर कहोगी,
मैंने डण्डी मारी है। चलो एक-एक कर टोकरी पकड़ाओ।”
तभी
कोई कहती है– “भइया, थोड़ा धनिया-मिर्च तो
डाल दो।” वह आगबबूला हो उठता है – “मुफ्त का नहीं आता धनिया-मिर्ची, पैसे लगेंगे।”
“ठीक है-ठीक है, ले लेना पैसे। पर, थोड़ा अच्छी तरह डाल देना, चटनी बनानी है।”
“भाभी, अच्छा रहेगा, किसी दिन मेरी
चटनी बना दो। पैसे का रुबाब डाल रही हो, मेरे पिछले पैसे तो चुका
दो। पच्चीस रुपये बकाया हैं तुम पर।”
“कभी तुम्हारे पैसे रखे हैं क्या? देर-सबेर ही सही,
पर दे देते हैं।” यह कहते-कहते वह अपना झोला आगे बढ़ा देती है और सब्जी
वाला बुरा सा मुँह बनाता हुआ उसके झोले में धनिया और मिर्ची डाल देता है।
किसी
और औरत की टोकरी में छाँटी गई सब्जी को तराजू में रखता हुआ वह फिर बड़बड़ाने लगता है-
“भाभी, पिछली बार भी तुमने पूरे
पैसे नहीं दिये थे। इस बार तो सारा हिसाब चुकता कर दो। नहीं तो अगली बार कहीं और से
सब्जी ले लेना, मेरे ठेले पर मत आना।” तुली हुई सब्जी को अपने
झोले में डलवाते हुए वह कहती है - “भइया पिछली बार के पन्द्रह रुपये लेकर आई हूँ। इस
बार के पैसे कल दे दूँगी।”
वह
पैसे लेकर गिन कर जेब में डालते हुए कहता है – “उधार मोहब्बत की कैंची है, भाभी। कल से बस नकद ही लेना, समझी। मुझे भी अपनी गृहस्थी चलानी है।”
तभी
उसे सुनाई देता है – “ये लो भइया, मैं तो आज पैसे लेकर आई हूँ। ये पकड़ो अपने पैसे। फिर न कहना दो दिन से पैसे
नहीं दिए। आज, मुन्नी के बापू खूब टमाटर वाली आलू की सब्जी बनाने
को कह गए हैं। आधा किलो आलू और आधा किलो टमाटर जल्दी से तोल दो”। वह पैसे हाथ में लेकर
गिनता है और कहता है – “बड़ा अहसान कर रही हो दीदी। एक हफ्ते बाद पैसे दे रही हो और
मन में जो आ रहा है वो भी सुनाती जा रही हो। चलो, यह तो हुए पहले
के पैसे, अब आलू-टमाटर के पैसे भी दे दो फटाफट, तभी तोलूँगा समझी।”
“भइया, दीदी कहते हो और ऐसी बात भी करते हो। आज मेरे पास
और पैसे नहीं हैं। कल तुम्हारे पैसे भी दे दूंगी और नकद देकर सब्जी खरीदूंगी।” उसकी
आवाज की तुर्शी गायब हो गई है और स्वर धीमा हो गया है।
“ठीक है, आज दे देता हूँ। खुलाओ जीजाजी को खूब टमाटर वाली
सब्जी। हाँ, कल पैसे नहीं दिए तो आगे से मेरे पास उधार लेने मत
आना।”
यही क्रम तब तक चलता रहता है जब तक आखिरी औरत उसके
ठेले पर बनी रहती है। सब्जियों से भरा उसका ठेला लगभग खाली हो जाता है। वह अपनी जेब
से बीड़ी निकाल कर और उसे सुलगा कर वहीं जमीन पर बैठ कर आखिरी कश तक दम लगाता है और
फिर अपना ठेला लेकर चला जाता है। उसके जाते ही गली में शान्ति सी छा जाती है और वह
जगह सुनसान लगने लगती है जहाँ अभी कुछ देर पहले तक उसका ठेला खड़ा हुआ था। गहराती शाम
की कालिमा बाल्कनी में उतर चुकी होती है और मैं भी कुर्सी फोल्ड कर उसे दीवार से टिका
कर घर के अन्दर घुस जाता हूँ।
इधर
दो-तीन दिन से सब्जी वाला नजर नहीं आ रहा है। झोंपड़-पट्टी की औरतें ईद के चाँद सी उसकी
राह देखती खड़ी रहतीं हैं और फिर मायूसी से अपने-अपने घरों को लौट जातीं हैं। उनकी तरह
मुझे भी उसका इन्तज़ार रहता है। बाल्कनी में बैठना बेकार सा लगता है और कान उसकी घण्टी
सुनने के लिए बेचैन बने रहते हैं। तीसरे दिन भी जब वह नहीं आया तो थोड़ी चिंता होने
लगी है। गली में इन्तज़ार करती औरतें भी चिंतित नजर आ रही हैं, उनकी तरह मैं भी सोचने लगा हूँ कि कहीं वह बीमार
न हो गया हो। कितनी अजीब बात है, अपने-अपने कारणों से मैं और
वे औरतें उस सब्जी वाले का बेताबी से इन्तज़ार कर रहे हैं, पर
लगता है वह तो कहीं गायब ही हो गया है।
करीब एक हफ्ते बाद अचानक ही वह घण्टी सुनाई दी तो
मैं तुरन्त ही बाल्कनी में निकल आया। उसकी घण्टी की आवाज सुन कर झोंपड़-पट्टी की तमाम
औरतें भी जैसे भागी चली आ रही थीं। हमेशा की जगह उसने अपना ठेला खड़ा किया तो उस पर
प्रश्नों की बौछार होने लगी – “कहाँ चले गए थे,
भइया? “बीमार-वीमार तो नहीं हो गए थे?”
“गांव चले गए थे क्या?” वह हाथ उठा कर सबको शांत
करने का प्रयास कर रहा था। शोर थोड़ा थमा तो उसने कहा – “क्या करें, सब्जियाँ इतनी महँगी जो हो गई हैं। यहाँ तो सबकुछ उधार पर चलता है,
पर वहाँ मण्डी में कोई हमारा ससुर नहीं बैठा है जो हमें उधारी पर सब्जियाँ
दे दे। फिर, इतनी महँगी सब्जियाँ यहाँ खरीदेगा कौन? ऐही वजह से कुछ दिन हमारा आना नहीं हुआ इहाँ। बड़ी मुश्किल से जुगाड़ बिठा कर
ठेला लगाया है। अब तुम सब लोग भी ध्यान से सुन लो, जिस-जिस के
पास हमारा पैसा निकलता है, वह सब लौटा दें। यह भी कहे देता हूँ
कि उधार-सुधार कुछ नहीं मिलेगा और सब्जियाँ भी अब पहले के भाव पर नहीं मिलेंगी। महँगी
खरीद है तो महँगी बेचेंगे। भाई हमारे भी तो बाल-बच्चे हैं। समझ गए न?”
उसकी
बात सुन कर सकता सा छा गया। कुछ औरतें उसे पैसे पकड़ाते और सब्जियाँ खरीदते नजर आईं।
कुछ थोड़ा इन्तज़ार करके मायूसी से लौट गईं। पर,
कुछ हठी औरतें उसके पास अभी भी डटी थीं। उनके बीच वार्तालाप काफी उग्र
हो गया था – “ तुम तो ऐसा कह रहे हो भइया, जैसे हम तुम्हारा पैसा
लेकर कहीं भाग गए हैं। हाथ में पैसा आते ही उधार चुकता करते हैं या नहीं। जब दीदी,
दादी और भाभी का रिश्ता जोड़ते हो तो फिर ऐसा क्यों कर रहे हो?”
वह
झल्ला गया था – “तुम लोग मेरी बात भी तो समझने की कोशिश करो। महँगाई सर चढ़ कर बोल रही
है। सब सब्जियों के भाव दुगुने-तिगुने हो गए हैं। मैं भी क्या करूँ। चलो, अगले दिन पैसे दे दो तब भी मेरा काम चल जाए,
पर कई-कई दिन तक पैसा न मिले तो मैं किसके पास जाकर फरियाद करूँ। पैसे
नहीं हों तो बंद कर दो सब्जियाँ खाना। तुम्हें भी फुरसत और मुझे भी फुरसत। कहीं और
जाकर सब्जियाँ बेच लूँगा मैं।”
काफी
देर तक बहस चलती रही और फिर अगले दिन पैसे चुकाने का वायदा मिलने पर उसने सब्जियाँ
तोलनी शुरू कीं। एक बार फिर से पुराना दृश्य साकार हो गया। औरतें सब्जी लेने के लिए
टूट पड़ीं। जो निराश होकर अपने घर चली गई थीं,
वे भी वापस लौट आईं। गली फिर से गुलजार हो गई थी।
हमेशा
की तरह थोड़ी देर में ही उसका ठेला लगभग खाली हो गया था। बहुत कम सब्जियाँ बची रह गई
थीं। उसने जेब से बीड़ी निकाल ली थी। वह उसे सुलगाने ही लगा था कि तभी उसकी नजर अधेड़
उम्र में बूढी हो आई उस औरत पर पड़ी जो सबके चले जाने के बाद चुपचाप आकर ठेले के पास
खड़ी हो गई थी। उसे वहाँ यूँ खड़ा देख कर उसने पूछा था – “क्या बात है ताई, ऐसे क्यों खड़ी है। मेरे पैसे लाई है क्या?
ला दे।”
वह
कुछ क्षण चुप रही, फिर बोली – “कैसे बताऊँ
भइया, अभी तो मेरे पास एक भी पैसा नहीं है। कुछ दिन और इन्तज़ार
कर ले, तेरा सारा पैसा चुकाऊँगी मैं। बस, आज के लिए मुझे कुछ आलू दे दे। जिंदगी भर तेरा अहसान नहीं भूलूँगी मैं।”
“ज्यादा बातें मत बना ताई। तुझे मालूम है न मैंने उधार देना बंद कर दिया है।
फिर तुझे तो उधार देने का सवाल ही नहीं है, कितने ही दिनों से
तूने सिर्फ उधार लिया ही लिया है, चुकाने की तो कभी सोची ही नहीं
है। बोल मैं गलत कह रहा हूँ तो?”
“क्या बोलूँ मैं। मेरा मरद पिछले एक महीने से बीमार पड़ा है, उसका बुखार उतरता ही नहीं। मेरी हड्डियों में भी अब उतनी ताकत नहीं बची है।
मजदूरी करके जो थोड़ा बहुत लाती हूँ, वह उसकी दवाइयों के लिए ही
पूरा नहीं पड़ता। मैं भी मजदूरी करते-करते थक गई हूँ। ऐसा लग रहा है जैसे शरीर में जान
ही न हो। दो दिन से मजदूरी पर जाने की हिम्मत नहीं हुई है मेरी। तेरे ताऊ और मेरे मुँह
में दो दिन से अन्न का एक दाना भी नहीं गया है। तू कुछ आलू दे देगा तो कुछ पेट में
चला जाएगा।”
“देख ताई, मैं उधार देते-देते थक गया हूँ, पर तुम सब उधार लेते-लेते थके नहीं हो। उधार लेने के लिए तुम्हारे पास कोई
न कोई कहानी तैयार रहती है। अगर कल मेरे सारे पैसे लौटाने का वादा करे तो चल एक किलो
आलू ले जा।”
“नहीं भइया, झूठा वादा कैसे करूँ। मैंने अपना पूरा हाल
बता दिया है। हाँ, तबीयत ठीक होते ही हम दोनों मजदूरी करेंगे
और तब तेरे पैसे जरूर लौटा देंगे।”
वह
जोर से हँस पड़ा था – “ताई तेरा क्या भरोसा,
जैसी हालत बता रही है, कल फिर आ जाएगी उधार लेने।
मैं कब तक यह सब करता रहूँगा और क्यों? मैंने दुनिया का ठेका
थोड़े ही ले रखा है। जा मुझे तो तू माफ ही कर दे।”
वह
थोड़ी देर चुपचाप खड़ी रही, फिर भारी कदमों से झोंपड़-पट्टी
की ओर चल दी।
उसके
जाते ही उसने बीड़ी सुलगाई और जमीन पर बैठ कर लम्बे-लम्बे कश लगाने लगा। आखिरी कश लेकर
उसने बीड़ी फेंकी और अपनी जूती की रगड़ से उसे बुझा कर उठ खड़ा हुआ। ठेला उसने मुख्य सड़क
पर ले जाने के लिए आगे बढ़ा दिया तो मैं भी बाल्कनी में अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।
आज की इस सारी बात ने मेरे मन को उदास ही नहीं,
दु:खी सा कर दिया था। कैसी-कैसी जिंदगी जी रहे हैं लोग, यह सोचते-सोचते मैं अपनी कुर्सी फोल्ड कर ही रहा था कि सब्जी वाले को वापस
लौटते देख कर रुक गया।
लेम्पपोस्ट
के नीचे लाकर उसने ठेला खड़ा कर दिया और फिर एक थैली में आलू और कुछ सब्जियाँ भरने लगा।
अब थैला लेकर वह झोंपड़पट्टी की तरफ चल दिया है। मुझे पता है, उसके कदम उस ताई के झोंपड़े पर जाकर ही रुकेंगे।
जैसे-जैसे उसके कदम झोंपड़-पट्टी की ओर बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे
मेरी आँखों के रास्ते गर्म पानी बह कर गालों पर लुढ़कता आ रहा है।