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तेल और तिलहन के पंख निकल आये - नेहा वैद

पिछले साल मैंने आदरणीय वनमाली जी के घर पर एक नशिस्त में नेहा दीदी से यह गीत सुना था। कहने की ज़रूरत नहीं कि अच्छी रचनाएँ भले ही आंशिक रूप से परंतु मन-मस्तिष्क में दर्ज़ अवश्य हो जाती हैं। इस हफ़्ते अशोक अंजुम जी के मुम्बई आगमन पर हस्तीमल हस्ती जी ने नरहरि जी के निवास पर एक नशिस्त रखी। वहाँ दीदी से मैंने उस गीत को ठाले-बैठे के पाठकों के लिये भेजने का निवेदन किया................... आप को कैसा लगा यह गीत अपनी प्रतिक्रिया से ज़रूर अवगत कराएँ..............
कितने खर्चे तूने आँखों में झुठलाए हैं
कितनों को रोजाना यों ही कल पर टालेगी ।
जीवन-जोत हमेशा माँगे - तेल और बाती 
बिना तेल का दीपक,  माँ ! तू कैसे बालेगी ।।