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कविता - मैं लौटना चाहता हूँ - हृदयेश मयंक


दुखों को पार कर

मैं लौटना चाहता हूँ

जैसे लौट आता है सूरज

रोज़ रोज़ अल सुबह

 

मैं लौटना चाहता हूँ

जैसे लौट आता है चाँद

मैं ने जल को जल कहा, लोगों ने मछली सुना - हृदयेश मयंक


आज यूं हीं कुछ ........

हमेशा

सच को सच कहा

झूठ को झूठ

रहा जहां भी

पूरा रहा

नहीं होना था जहां

नहीं रहा कभी भी.

कोशिश की निभाने की

जीवन से

और रिश्तों से भी

नहीं रहा अबूझा

जीवन और रिश्तों में कहीं भी,कभी भी.

सहन शक्ति में

पूरे का पूरा गांव  था

गांव में किसान

खेतों में फसल बन जिया

बैलों की तरह सौंपता रहा कंधा

हांकते रहे किसिम किसिम के हलवाहे .

जल को जल कहा

लोगों नें  मछली सुना

आग और सूर्य  को समझा  जीवन स्रोत

लोग तापते रहे ईंधन की तरह

नींद और अंधेरों में  इंतज़ार किया

सुबह का. ( जो अभी तक नहीं आई )

जानते पहचानते हुए भी

चुप रहा  हर बार

लोगों नें कमजोरी समझी

और मैंनें शालीनता पर गर्व किया

हारा ग़ैरों से नहीं

अपनों नें हराया बार बार .

यही सब करते करते

जीया अबतक तमाम उम्र

सोचता हूँ कि

बीत जायें और शेष कुछ वर्ष

इसी तरह यूं हीं

अच्छे, भले, बुरों में।

( 69वें जन्मदिन की पूर्व संध्या पर  )

17 -09-2020

 

: हृदयेश मयंक

सम्पादक – चिंतन दिशा

मुम्बई के सम्माननीय वरिष्ठ साहित्यकार


अजाने प्रदेश में - हृदयेश मयंक

अजाने प्रदेश में
एक अनजान जगह में
बड़े सबेरे उठकर
ढूंढता हूं अपनापन
न भाषा साथ देती है
नलोग, न वातावरण

खिड़की से निहारता हूं
पेड़ पौधे, तितलियां उछलते कूदते बच्चे
सबके सब वैसे ही निश्चल
जैसे कि मेरे अपने प्रदेश में

देर तक विचारता हूं 
अजनबीपन के कारकों को
भाषा और जगह तो समझ में आती हैं
पर रंग तो हमने नहीं बनाये
हमने दुनिया भी तो नहीं बनाई

हां प्रदेश हमने बनाये
बोली और भाषाएँ रचीं
दीवार भी हमने ही खड़ी कीं 
और बंद कर लीं दिलों दिमाग की खिड़कियां

अब जब खोलना चाहता हूँ खिड़कियाँ
तब अपनी ही बनाई चीजें
बाधा बन कर खड़ी हो गईं हैं।

हृदयेश मयंक
9869118707