बहरे हजज मुसम्मन सालिम लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
बहरे हजज मुसम्मन सालिम लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

इसी ख़ातिर तो उसकी आरती हमने उतारी है - मयंक अवस्थी

इसी ख़ातिर तो उसकी आरती हमने उतारी है
ग़ज़ल भी माँ है और उसकी भी शेरों की सवारी है


मुहब्बत धर्म है, हम शायरों का दिल पुजारी है
अभी फ़िरकापरस्तों पर हमारी नस्ल भारी है


सितारे, फूल, जुगनू, चाँद, सूरज हैं हमारे सँग

कोई सरहद नहीं ऐसी अजब दुनिया हमारी है


वो दिल के दर्द की खुश्बू का आलम है कि मत पूछो 

तुम्हारी राह में ये उम्र जन्नत में गुज़ारी है

ये दुनिया क्या सुधारेगी हमें, हम तो हैं दीवाने

हमीं लोगों ने अबतक अक्ल दुनिया की सुधारी है


मयंक अवस्थी

ब्रज-गजल - अबू उभरै तौ है हिय में, गिरा के रूठवे कौ डर - नवीन

ब्रज-गजल - रूठवे कौ डर 
================== 
अबू उभरै तौ है हिय में - गिरा1 के रूठवे कौ डर। 
मगर अब कम भयौ है - शारदा के रूठवे कौ डर॥

सलौने-साँवरे नटखट बिरज में जब सों तू आयौ। 
न जानें काँ गयौ - परमातमा के रूठवे कौ डर॥

सुदामा और कनुआ की कथा सों हम तौ यै सीखे। 
विनय के पद पढावै है - सखा के रूठवे कौ डर॥

कोऊ मानें न मानें वा की मरजी, हम तौ मानें हैं। 
हमें झुकवौ सिखावै है - सभा के रूठवे कौ डर॥

हहा अब तौ ठिठोली सों जमानौ रूठ जावें है। 
कहूँ गायब न कर डारै - ठहाके - रूठवे कौ डर॥

निरे सत्कर्म ही थोड़ें करावै माइ-बाप'न सों। 
कबू छल हू करावै है – सुता2 के रूठवे कौ डर॥

हमें तौ नाँय काऊ 'और' कों तकलीफ है तुम सों। 
डरावै है तुम्हें वा ही 'तथा' के रूठवे कौ डर॥

घनेरे लोग बीस'न बेर कुनबा कों डला कह'तें। 
डरावै है सब'न कों या डला के रूठवे कौ डर॥

'नवीन' इतिहास में हम जाहु नायक सों मिले, वा के। 
मगज में साफ देख्यौ - नायिका के रूठवे कौ डर॥

गिरह कौ शेर:- 
बड़ी मुस्किल सों रसिया रास कों राजी भयौ, लेकिन। 
"लली कौ जीउ धसकावै लला के रूठवे कौ डर"॥

1 वाणी, सरस्वती 2 बेटी


नवीन सी. चतुर्वेदी 

ब्रज-गजल - बिगर बरसात के रहबै, चमन के रूठबे कौ डर - उर्मिला माधव

बिगर बरसात के रहबै, चमन के रूठबे कौ डर
कहूँ जो ब्यार चल बाजी, घट'न के रूठबे कौ डर
खड़े हैं मोर्चा पै रात दिन सैनिक हमारे तईं,
रहै हर दम करेजे में,वतन के रूठबे कौ डर
जमाने भर की चिंता में बिगारैं काम सब अपने,
ऑ जाऊ पै लगौ रहबै,सब'न के रूठबे कौ डर
कब'उ बेटा कौ मुंडन है,कब'उ है ब्याह लाली कौ,
कहूँ नैक'उ कमी रह गई,बहन के रूठबे कौ डर,
अजब दुनिया कौ ढर्रा ऐ,सम्हर कें, सोच कें चलियो.
तनिक भी चूक है गई तौ सजन के रूठबे कौ डर...
उर्मिला माधव...

बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222


हमें हर बार थोड़े ही करिश्मा1 चाहिये साहब - नवीन

हमें हर बार थोड़े ही करिश्मा1 चाहिये साहब।  
सलीक़ा चाहिये साहब क़रीना2 चाहिये साहब॥  

बहुत ईमानदारी से कई लड़कों ने बतलाया। 
प्रियंका हो न हो लेकिन मनीषा3 चाहिये साहब॥ 

हमें रस्मो-रिवाज़ों ने कहाँ ला कर पटक डाला। 
कि बेटा हो न हो लेकिन तनूजा4 चाहिये साहब॥ 

नदी के तीर पर अद्भुत-अलौकिक शांति मिलती है। 
हताशा हो तो लाज़िम है बिपाशा5 चाहिये साहब॥   

पुराने चावलों की हर ज़माना क़द्र करता है। 
लता दीदी के युग में भी सुरैया चाहिये साहब॥ 

जिन्हें हूरों की हसरत हो वे जन्नत के मज़े लूटें। 
हमें अपने लिये तो सिर्फ़ हेमा6 चाहिये साहब॥  

नहीं हरगिज़ अंधेरों की सिफ़ारिश कर रहा हूँ मैं। 
नवीन’ इक सुब्ह की ख़ातिर – शबाना7 चाहिये साहब॥


1 चमत्कार 2 तरीक़ा, पद्धति manners 3 पढ़ी-लिखी / विदुषी 4 बेटी 5 नदी 6 पृथ्वी 7 रात

नवीन चतुर्वेदी

बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222


अँधेरा शब-ढले आराम फ़रमाता नहीं है क्यों - नवीन

अँधेरा शब-ढले आराम फ़रमाता नहीं है क्यों।
मेरी दुनिया में तेरा आफ़ताब आता नहीं है क्यों॥
न जाने कब से तेरी गोद में रक्खा है मेरा सर।
पिता बन कर तू मेरे सर को सहलाता नहीं है क्यों॥
मैं बच्चा हूँ तो जाहिर है बिनटना काम है मेरा।
ये तुझ पर फ़र्ज़ है तू मुझ को बहलाता नहीं है क्यों॥
अरे उलझाने वाले और अब उलझायेगा कितना।
तू अपनी जुल्फों की गुरगाँठ सुलझाता नहीं है क्यों॥
कुसूर उस का है लेकिन आज ये मैं तुझ से पूछूँगा।
वो मेरा भाई मेरे जैसा बन पाता नहीं है क्यों॥
हम आँसू हैं तो आँखों से टपकते क्यों नहीं आख़िर।
हमारा जन्म लेना काम कुछ आता नहीं है क्यों॥
नवीन’ उस आसमाँ से इस ज़मीं तक तू ही तू है तो।
मेरे मौला ग़रीबों पर तरस खाता नहीं है क्यों॥
नवीन सी. चतुर्वेदी
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222


हमारा बन के हम में ख़ुद समा जाने को आतुर हैं - नवीन

हमारा बन के हम में ख़ुद समा जाने को आतुर हैं।
हृदय के द्वार खुल जाओ – किशन आने को आतुर हैं॥
अगर हम बन सकें राधा तो अपने प्रेम का अमरित।
किशन राधा के बरसाने में बरसाने को आतुर हैं॥
हमें मासूमियत से पूछना आता नहीं, वरना।
सनेही बन के श्यामा-श्याम समझाने को आतुर हैं॥
नवीन’ इक मैं हूँ जो पीछा छुड़ाता रहता हूँ उन से।
और इक वो हैं जो टूटे तार जुड़वाने को आतुर हैं॥

नवीन सी चतुर्वेदी

बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222


सितमगर की ख़मोशी को भले जुल्मो-सितम कहना - नवीन

सितमगर की ख़मोशी को भले जुल्मो-सितम कहना
पर उस की मुस्कुराहट को तो लाज़िम है करम कहना
मुहब्बत के फ़रिश्ते अब तो इस दिल पर इनायत कर
लबों को आ गया है ख़ुश्क-आँखों को भी नम कहना
हमें तनहाई के आलम में अक्सर याद आता है
किसी का ‘अल्ला-हाफ़िज़’ कहते-कहते ‘बेsssशरम’ कहना
हमें गूँगा न समझें हम तो बस इस वासते चुप हैं
सभी के हक़ में है असली फ़साना कम से कम कहना
सनातन काल से जिस बात का डर था – हुआ वो ही
बिल-आख़िर बन गया फ़ैशन दरारों को धरम कहना
अक़ीदत के सिवा शाइस्तगी भी चाहिये साहब
कोई फ़ोर्मेलिटी थोड़े है ‘वन्दे-मातरम’ कहना
अगरचे मान्यवर कहने से कुछ इज़्ज़त नहीं घटती
मगर हम चाहते हैं आप हम को मुहतरम कहना
नवीन सी चतुर्वेदी

बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222


3 ग़ज़लें - पवन कुमार

 तुम्हें पाने की धुन इस दिलको अक्सर यूँ सताती है
बँधी मुट्ठी में जैसे कोई तितली फड़फड़ाती है

चहक उठता है दिन और शाम नगमे गुनगुनाती है
तुम्हारे पास आता हूँ तो हर शय मुसकुराती है

मुझे ये ज़िन्दगी अपनी तरफ़ कुछ यूँ बुलाती है
किसी मेले में क़ुलफ़ी जैसे बच्चों को लुभाती है

वही बेरङ्ग सी सुब्हें, वही बे-क़ैफ़ सी शामें
मुझे तू मुस्तक़िल ऐ ज़िन्दगी क्यूँ आजमाती है

क़बीलों की रवायत, बन्दिशें, तफ़रीक़ नस्लों की
मुहब्बत इन झमेलों में पड़े तो हार जाती है

किसी मुश्किल में वो ताक़त कहाँ जो रासता रोके
मैं जब घर से निकलता हूँ तो माँ टीका लगाती है

न जाने किस तरह का क़र्ज़ वाजिब था बुज़ुर्गों पर
हमारी नस्ल जिस की आज तक क़िस्तें चुकाती है

हवाला दे के त्यौहारों का, रस्मों का, रवाज़ों का
अभी तक गाँव की मिट्टी इशारों से बुलाती है
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222


जहां हमेशा समंदर ने मेहरबानी की
उसी ज़मीन पे किल्लत है आज पानी की

उदास रात की चौखट पे मुंतज़िर आँखें
हमारे नाम मुहब्बत ने ये निशानी की

तुम्हारे शहर में किस तरह जिंदगी गुज़रे
यहाँ कमी है तबस्सुम की ,शादमानी की

ये भूल जाऊं तुम्हें सोच भी नहीं सकता
तुम्हारे साथ जुड़ी है कड़ी कहानी की

उसे बताये बिना उम्र भर रहे उसके
किसी ने ऐसे मुहब्बत की पासबानी की
बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ

मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
1212 1122 1212 22


ज़रा सी चोट को महसूस करके टूट जाते हैं
सलामत आईने रहते हैं चेहरे टूट जाते हैं

पनपते हैं यहाँ रिश्ते हिजाबों एहतियातों में
बहुत बेबाक होते हैं तो रिश्ते टूट जाते हैं

दिखाते हैं नहीं जो मुद्दतों तिश्नालबी अपनी
सुबू के सामने आकर वो प्यासे टूट जाते हैं

किसी कमजोर की मज़बूत से चाहत यही देगी
कि मौजें सिर्फ़ छूती हैं ,किनारे टूट जाते हैं

यही इक आखिरी सच है जो हर रिश्ते पे चस्पा है
जरूरत के समय अक्सर भरोसे टूट जाते हैं

गुज़ारिश अब बुज़ुर्गों से यही करना मुनासिब है
ज़ियादा हो जो उम्मीदें तो बच्चे टूट जाते हैं
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन

1222 1222 1222 1222

:- पवन कुमार
9412290079

तख़य्युल के फ़लक से कहकशाएँ हम जो लाते हैं - मुमताज़ नाज़ां



तख़य्युल के फ़लक से कहकशाएँ हम जो लाते हैं
सितारे ख़ैरमक़दम के लिए आँखें बिछाते हैं

मेरी तनहाई के दर पर ये दस्तक कौन देता है
मेरी तीराशबी में किस के साए सरसराते हैं

हक़ीक़त से अगरचे कर लिया है हम ने समझौता
हिसार-ए-ख़्वाब में बेकस इरादे कसमसाते हैं

मज़ा तो ख़ूब देती है ये रौनक़ बज़्म की लेकिन
मेरी तन्हाइयों के दायरे मुझ को बुलाते हैं

बिलखती चीख़ती यादें लिपट जाती हैं क़दमों से
हज़ारों कोशिशें कर के उसे जब भी भुलाते हैं

ज़मीरों में लगी है ज़ंगज़हन-ओ-दिल मुकफ़्फ़ल हैं
जो ख़ुद मुर्दा हैंजीने की अदा हम को सिखाते हैं

वो लम्हेजो कभी हासिल रहे थे ज़िंदगानी का
वो लम्हे आज भी “मुमताज़” हम को ख़ूँ रुलाते हैं

मुमताज़ नाज़ां


बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222


राजस्थानी गजल - राजेन्द्र स्वर्णकार


हवा में ज़ैर रळग्यो , सून सगळां गांव घर लागै
अठीनैं कीं कसर लागै , बठीनैं कीं कसर लागै

शकल सूं नीं पिछाणीजै इणां री घात मनड़ै री
किंयां अळगां री ठा' जद कै , न नैड़ां री ख़बर लागै

कठै ऐ पूंछ हिलकावै , कठै चरणां में लुट जावै
ऐ मुतळब सूं इंयां डोलै , कॅ ऐ डुलता चंवर लागै

किचर न्हाखै मिनख - ढांढा  चलावै कार इण तरियां
सड़क ज्यूं बाप री इणरै ; ऐ नेतां रा कुंवर लागै

निकळ' टीवी सूं घुसगी नेट में आ , आज री पीढ़ी
बिसरगी संस्कृती अर सभ्यता , जद श्राप वर लागै

अठै रै सूर सूं मिलतो जगत नैं चांनणो पैलां
अबै इण देश , चौतरफै धुंवो कळमष धंवर लागै

जगत सूं जूझसी राजिंद , कलम ! सागो निभा दीजे
कथां रळ' साच , आपांनैं किस्यो किण सूं ई डर लागै

-----

* राजस्थानी ग़ज़ल में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ *

ज़ैर रळग्यो = ज़हर घुल गया /, सून = सुनसान /, सगळां = समस्त् /, लागै = लगता है – लगती है - लगते हैं /, अठीनैं = इधर /, बठीनैं = उधर /, कीं = कुछ, नीं पिछाणीजै = नहीं पहचानी जाती है /, इणां री = इनकी /, घात मनड़ै री = मन की घात /, किंयां = कैसे /, अळगां री = दूरस्थ की /, ठा' = मा'लूम - जानकारी होना /, नैड़ां री = समीपस्थ की /, कठै = कहीं - कहां /, ऐ = ये /, डुलता चंवर = गुरुद्वारों में गुरु ग्रंथसाहिब तथा मंदिर में ठाकुरजी के आगे डुलाया जाने वाला चंवर, किचर न्हाखै = कुचल देते हैं /, मिनख - ढांढा = मनुष्य - पशु /, जद = तब /, अठै रै सूर सूं = यहां के सूर्य से /, चांनणो = प्रकाश /, पैलां = पहले /, चौतरफै = चारों तरफ़ /, धुंवो कळमष धंवर = धुआं कल्मष धुंध /, सागो निभा दीजे = साथ निभा देना /, कथां रळ' साच = मिल कर सत्य - सृजन करें /, आपांनैं = हमको - हमें /, किस्यो किण सूं ई = कौनसा किसी से भी /


राजेन्द्र स्वर्णकार
9414682626


बहरे हजज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222


न मन्दिर में सनम होते न मस्जिद में ख़ुदा होता - नौशाद अली

न मन्दिर में सनम होते न मस्जिद में ख़ुदा होता
हमीं से ये तमाशा है न हम होते तो क्या होता 

न ऐसी मञ्ज़िलें होतीं, न ऐसा रासता होता 
सँभल कर हम ज़रा चलते तो आलम ज़ेर-ए-पा होता
आलम - दुनिया, ज़ेर-ए-पा - क़दमों के नीचे

घटा छाती, बहार आती, तुम्हारा तज़्किरा होता
फिर उस के बाद गुल खिलते कि ज़ख़्मेदिल हरा होता
तज़्किरा - यादें

ज़माने को तो बस मश्क़ेसितम से लुत्फ़ लेना है
निशाने पर न हम होते तो कोई दूसरा होता 
मश्क़ेसितम - सितम का अभ्यास 
[किसी पर सितम ढा कर मज़े लेना या किसी पर सितम होता देख कर मज़े लेना]

तिरे शानेकरम की लाज रख ली ग़म के मारों ने
न होता ग़म जो इस दुनिया में, हर बन्दा ख़ुदा होता

मुसीबत बन गये हैं अब तो ये साँसों के दो तिनके
जला था जब तो पूरा आशियाना जल गया होता

हमें तो डूबना ही था ये हसरत रह गयी दिल में
किनारे आप होते और सफ़ीना डूबता होता

अरे ओ! जीते-जी दर्देदुहाई देने वाले सुन
तुझे हम सब्र कर लेते अगर मर के जुदा होता

बुला कर तुम ने महफ़िल में हमें ग़ैरों से उठवाया
हमीं ख़ुद उठ गये होते, इशारा कर दिया होता

तेरे अहबाब तुझ से मिल के फिर मायूस लौट आये
तुझे 'नौशाद' कैसी चुप लगी, कुछ तो कहा होता

:- नौशाद अली
[1940-2006]

बहरे हजज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222