30 नवंबर 2014

ग़ज़लें - मयङ्क अवस्थी

मयङ्क  अवस्थी
+91 8765213905
  

ख़ुश्क आँखों से कोई प्यास न जोड़ी हमने
आस हमसे जो सराबों को थी, तोड़ी हमने

हमने पाया है शरर अपने  लहू में हरदम
अपनी दुखती हुयी रग जब भी निचोड़ी हमने

जो सँवरने को किसी तौर भी राज़ी न हुई
भाड़ में फेंक दी दुनिया वो निगोड़ी हमने

इस तरह हमने समन्दर को पिलाया पानी
अपनी कश्ती किसी साहिल पे न मोड़ी हमने

जब कोई चाँद मिला दाग़ न देखे उसके
आँख सूरज से मिलाकर न सिकोड़ी हमने

ग़र्द ग़ैरत के बदन पर जो नज़र आयी कभी
तब तो तादेर , अना अपनी झिंझोड़ी हमने





क़ैदे-  शबे-  हयात बदन में गुज़ार के
उड़ जाऊँगा मैं सुबह अज़ीयत उतार के

इक धूप ज़िन्दगी को यूँ सहरा बना गयी
आये न इस उजाड़ में मौसम बहार के

ये बेगुनाह शम्म: जलेगी तमाम रात
उसके लबों से छू गये थे लब शरार के

सीलन को राह मिल गयी दीमक को सैरगाह
अंजाम देख लीजिये घर की दरार के

सजती नहीं है तुमपे ये तहज़ीब मग़रिबी
इक तो फटे लिबास हैं वो भी उधार के

बादल नहीं हुज़ूर ये आँधी है आग की
आँखो से देखिये ज़रा चश्मा उतार के



बिखर जाये न मेरी दास्ताँ तहरीर होने तक
ये आँखें बुझ न जायें ख़्वाब की ताबीर होने तक

चलाये जा अभी तेशा कलम का कोहे –ज़ुल्मत पर
सियाही वक़्त भी  लेती है  जू-ए-शीर होने तक

इसी ख़ातिर मेरे अशआर अब तक डायरी में हैं
किसी  आलम में जी लेंगे ये आलमगीर होने तक

तेरे आग़ाज़ से पहले यहाँ जुगनू चमकते थे
ये बस्ती मुफ़लिसों की थी तेरी जागीर होने तक

मुझे तंज़ो-मलामत की बड़ी दरकार है यूँ भी
अना को सान भी तो चाहिये शमशीर होने तक

मुहब्बत आखिरश ले आयी है इक बन्द कमरे में
तेरी तस्वीर अब देखूँगा खुद तस्वीर होने तक

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें