30 नवंबर 2014

मङ्गल नसीम की ग़ज़लें

हँस के मिलते हैं भले दिल में चुभन रखते हैं
हम से कुछ लोग मोहब्बत का चलन रखते हैं

पाँव थकने का तो मुमकिन है मुदावा लेकिन
लोग पैरों में नहीं मन में थकन रखते हैं

ठीक हो जाओगे कहते हुए मुंह फेर लिया
हाय! क्या खूब वो बीमार का मन रखते हैं

दौर-ए-पस्ती है सबा! वरना तुझे बतलाते;
अपनी परवाज़ में हम कितने गगन रखते हैं

हम तो हालात के पथराव को सह लेंगे नसीम
बात उनकी है जो शीशे का बदन रखते हैं


क्या सीरत क्या सूरत थी
माँ ममता की मूरत थी

पाँव छुए और काम बने
अम्मा एक महूरत थी

बस्ती भर के दुख सुख में
अम्मा अह्म ज़रूरत थी

सच कहते हैं माँ हमको
तेरी बहुत ज़रूरत थी




अगर इंसान की उम्मीद ही दम तोड़ जाती है
तो अक्सर आरज़ू-ए-ज़ीस्त भी दम तोड़ जाती है

मेरा घर भी उजालों के शहर की हद में है लेकिन
यहाँ तक आते आते रौशनी दम तोड़ जाती है

जो आ कर कोई पत्ता भी मेरी खिड़्की से ट्कराये
मेरे कमरे में छाई ख़ामुशी दम तोड़ जाती है

जहाँ से दोस्ती में फ़ायदा-नुक्सान हो शामिल
हक़ीकत में वहीं पे दोस्ती दम तोड़ जाती है

मैं अपना ग़म सुनाते वक्त दानिस्ता नहीं चुप हूँ
लबों तक आते आते बात ही दम तोड़ जाती है



जो बरसाते लिखीं थीं बदलियों पर
उतर आयीं छतों पर छजलियों पर

जलाया हमने ख़ुद अपना नशेमन
नहीं इल्ज़ाम कोई बिजलियों पर

भले इंसान अब गिनती के होंगे
जिन्हें चाहो तो गिन लो उंगलियों पर

बहुत भूखा है ये मजदूर देखो
न मारो ठोंकरें यूं पसलियों पर

'नसीम' इस दौर में मुमकिन नहीं है
ग़ज़ल कहना गुलों पर तितलियों पर 

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