
मैं नहाया आंसुओं में, रात फिसली जा रही थी|
पर्वतों पर जो जमीं थी बर्फ पिघली जा रही थी|
क्यों मुझे इतना नहाना ,इस तरह अच्छा लगा था|
बात तेरी चल रही थी , जान निकली जा रही थी|१|
शब्द के कतरे पिरोकर ,वेदना जब गुनगुनाई|
बूँद अमृत की बिलोकर, बह रही थी रोशनाई|
प्रीत का व्यापार कितने युग अनंतों तक चलेगा|
व्योम में छिटकी हुई -सी एक बदली जा रही थी|२|
द्रश्य चेतन, ओ, अचेतन ,इस तरह क्यों खींचते हैं|
प्रियतमा के बिम्ब अक्सर, आत्मा में दीखते हैं|
मैं नहाया डूबकर जब, फ़क्त इतना याद आया|
रेत की सूखी सतह पर ,मीन, उछली जा रही थी|३|
तुषार देवेन्द्र चौधरी