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तीन कविताएँ - आलम खुरशीद

कविता (१)
बदलता हुआ मञ्ज़र
आलम खुरशीद

मेरे सामने
झील की गहरी खमोशी फैली हुई है
बहुत दूर तक ........
नीले पानी में
कोई भी हलचल नहीं है
हवा जाने किस दश्त में खो गई है
हर शजर सर झुकाए हुए चुप खड़ा है
परिंदा किसी शाखे-गुल पर
न नग़मासरा है
न पत्ते किसी शाख पर झूमते हैं
हर इक सम्त खामोशियों का
अजब सा समाँ है
मेरे शहर में ऐसा मंज़र कहाँ है!!!

चलूँ !
ऐसे ख़ामोश मंज़र की तस्वीर ही
कैनवस पर उभारूँ
..............
........................
.............................
अभी तो फ़क़त ज़ेह्न में
एक खाका बना था
कि मंज़र अचानक बदल सा गया है
किसी पेड़ की शाख से
कोई फल टूट कर झील में गिर पड़ा है
बहुत दूर तक
पानिओं में
अजब खलबली सी मची है
हर इक मौज बिफरी हुई है .............


कविता (२)
नया खेल
*********
आलम खुरशीद
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पिंकी ! बबलू ! डब्लू ! राजू !
आओ खेलें !
खेल नया .

पिंकी ! तुम मम्मी बन जाओ !
इधर ज़मीं पर चित पड़ जाओ !
अपने कपड़ों,
अपने बालों को बिखरा लो !
आँखें बंद तो कर ले पगली !

डब्लू ! तुम पापा बन जाओ !
रंग लगा लो गर्दन पर !
इस टीले से टिक कर बैठो !
अपना सर पीछे लटका लो !
लेकिन आँखें खोल के रखना !

बब्ली ! तुम गुड़िया बन जाओ !
अपने हाथ में गुड्डा पकड़ो !
इस पत्थर पर आकर बैठो !
अपने पेट में काग़ज़ का
ये खंजर घोंपो !

राजू आओ !
हम तुम मिल कर गड्ढा खोदें !
मम्मी , पापा , गुड़िया तीनों
कई रात के जागे हैं
इस गड्ढे में सो जाएँगे !

भागो ! भागो !
जान बचाओ !
आग उगलने वाली गाड़ी
फिर आती है ...
इस झाड़ी में हम छुप जाएँ !
जान बची तो
कल खेलेंगे
बाक़ी खेल ....................!!

कविता ३
नया ख़्वाब
***********
आलम खुरशीद
***************
मैं यकीं से कह नहीं सकता
ये कोई ख़्वाब है या वाकिआ
जो अक्सर देखता हूँ मैं

मैं अक्सर देखता हूँ
अपने कमरे में हूँ
मैं बिखरा हुआ
इक तरफ़ कोने में
दोनों हाथ हैं फेंके हुए
दुसरे कोने में
टांगें हैं पड़ीं
बीच कमरे में गिरा है धड़ मिरा
इक तिपाई पर
सलीके से सजा है सर मिरा
मेरी आँखें झांकती हैं
मेज़ के शो केस से ...

ये मंज़र देखना
मेरा मुक़द्दर बन चूका है
मगर अब इन् मनाज़िर से
मुझे दहशत ही होती है
न वहशत का कोई आलम
मिरे दिल पर गुज़रता है
बड़े आराम से
यक्जा किया करता हूँ
मैं अपने जिस्म के टुकड़े
सलीके से इन्हें तर्तीब दे कर
केमिकल से जोड़ देता हूँ ....

न जाने क्यूं मगर
तर्तीब में
इक चूक होती है हमेशा
मेरी आँखें
जड़ी होती हैं
मेरी पीठ पर .....

आलम खुर्शीद
9835871919

दिल में रहता है मगर ख़्वाब हुआ जाता है - आलम खुर्शीद

दिल में रहता है मगर ख़्वाब हुआ जाता है
वो भी अब सूरते-महताब हुआ जाता है

खाक उड़ती है हमेशा मिरे गुलज़ारों में
और सहरा कहीं शादाब हुआ जाता है

बे-सबब हम ने जलाई नहीं कश्ती अपनी
ये समुन्दर भी तो पायाब हुआ जाता है

एक हो जाएंगे शाहाने- ज़माना सारे
इक प्यादा जो ज़फ़रयाब हुआ जाता है

यह किसी आँख से टपका हुआ आँसू तो नहीं
कैसा क़तरा है कि सैलाब हुआ जाता है

कुछ दिए हम ने जलाए थे अँधेरे घर में
कोई तारा कोई महताब हुआ जाता है

चढ़ते दरिया में निकलता नहीं रस्ता आलम !
मेरा लश्कर है कि ग़र्काब हुआ जाता है 

बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22

आलम खुर्शीद

तख्ते-शाही ! तेरी औक़ात बताते हुए लोग - आलम खुर्शीद


तख्ते-शाही ! तेरी औक़ात बताते हुए लोग 

देख ! फिर जम्अ हुए खाक उड़ाते हुए लोग

तोड़ डालेंगे सियासत की खुदाई का भरम
वज्द में आते हुए , नाचते-गाते हुए लोग 

कुछ न कुछ सूरते-हालात बदल डालेंगे 
एक आवाज़ में आवाज़ मिलाते हुए लोग 

कोई तस्वीर किसी रोज़ बना ही लेंगे 
रोज़ पानी पे नये अक्स बनाते हुए लोग 

कितनी हैरत से तका करते हैं चेहरे अपने 
आईना-खाने में जाते हुए, आते हुए लोग 

काश ! ताबीर की राहों से न भटकें आलम 
बुझती आँखों में नये ख़्वाब जगाते हुए लोग



बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन

2122 1122 1122 22

मेरे बच्चो ! इस धरती पर प्यार की गंगा बहती थी - आलम ख़ुर्शीद

जीवन तो है खेल तमाशा , चालाकी, नादानी है
तब तक ज़िंदा रहते हैं हम जब तक इक हैरानी है

आग हवा और मिटटी पानी मिल कर कैसे रहते हैं
देख के खुद को हैराँ हूँ मैं , जैसे ख़्वाब कहानी है

इस मंज़र को आखिर क्यूँ मैं पहरों तकता रहता हूँ
ऊपर ठहरी चट्टानें हैं , तह में बहता पानी है

मेरे बच्चो ! इस धरती पर प्यार की गंगा बहती थी
देखो ! इस तस्वीर को देखो ! ये तस्वीर पुरानी है

आलम ! मुझको बीमारी है नींद में चलते रहने की
रातों में भी कब रुकता है मुझ में जो सैलानी है
:- आलम ख़ुर्शीद

सोचता रहता हूँ उसको देखकर - आलम खुर्शीद

आलम खुर्शीद
ज़िन्दगी में अब तक न जाने कितने सारे 'अच्छे' रचनाधर्मी मिले हैं पर याद करने बैठूँ तो सहसा याद नहीं आते। इसीलिए अपने ब्लॉग पर वातायन के अंतर्गत ऐसे ख़ास रचनाधर्मियों को सहेजना शुरू किया है ताकि आप सभी के साथ मैं भी जब चाहूँ अलबम की तरह समय-समय पर गुजरे लमहात का आनंद ले सकूँ। आइये एक मतला पढ़ते हैं :-

देख रहा है दरिया भी हैरानी से।
हमने पार किया कितनी आसानी से।।

ये मतला पढ़ते ही मैं मुरीद हो गया था इस दौर के एक अज़ीम शायर मुहतरम आलम खुर्शीद साहब का। देश-विदेश में छपने वाले इस शायर की