बदलता
हुआ मञ्ज़र
आलम
खुरशीद
मेरे
सामने
झील
की गहरी खमोशी फैली हुई है
बहुत
दूर तक ........
नीले
पानी में
कोई
भी हलचल नहीं है
हवा
जाने किस दश्त में खो गई है
हर
शजर सर झुकाए हुए चुप खड़ा है
परिंदा
किसी शाखे-गुल पर
न
नग़मासरा है
न
पत्ते किसी शाख पर झूमते हैं
हर
इक सम्त खामोशियों का
अजब
सा समाँ है
मेरे
शहर में ऐसा मंज़र कहाँ है!!!
चलूँ
!
ऐसे
ख़ामोश मंज़र की तस्वीर ही
कैनवस
पर उभारूँ
..............
........................
.............................
अभी
तो फ़क़त ज़ेह्न में
एक
खाका बना था
कि
मंज़र अचानक बदल सा गया है
किसी
पेड़ की शाख से
कोई
फल टूट कर झील में गिर पड़ा है
बहुत
दूर तक
पानिओं
में
अजब
खलबली सी मची है
हर
इक मौज बिफरी हुई है .............
कविता
(२)
नया
खेल
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आलम
खुरशीद
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पिंकी
! बबलू ! डब्लू ! राजू !
आओ
खेलें !
खेल
नया .
पिंकी
! तुम मम्मी बन जाओ !
इधर
ज़मीं पर चित पड़ जाओ !
अपने
कपड़ों,
अपने
बालों को बिखरा लो !
आँखें
बंद तो कर ले पगली !
डब्लू
! तुम पापा बन जाओ !
रंग
लगा लो गर्दन पर !
इस
टीले से टिक कर बैठो !
अपना
सर पीछे लटका लो !
लेकिन
आँखें खोल के रखना !
बब्ली
! तुम गुड़िया बन जाओ !
अपने
हाथ में गुड्डा पकड़ो !
इस
पत्थर पर आकर बैठो !
अपने
पेट में काग़ज़ का
ये
खंजर घोंपो !
राजू
आओ !
हम
तुम मिल कर गड्ढा खोदें !
मम्मी
, पापा , गुड़िया तीनों
कई
रात के जागे हैं
इस
गड्ढे में सो जाएँगे !
भागो
! भागो !
जान
बचाओ !
आग
उगलने वाली गाड़ी
फिर
आती है ...
इस
झाड़ी में हम छुप जाएँ !
जान
बची तो
कल
खेलेंगे
बाक़ी
खेल ....................!!
कविता
३
नया
ख़्वाब
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आलम
खुरशीद
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मैं
यकीं से कह नहीं सकता
ये
कोई ख़्वाब है या वाकिआ
जो
अक्सर देखता हूँ मैं
मैं
अक्सर देखता हूँ
अपने
कमरे में हूँ
मैं
बिखरा हुआ
इक
तरफ़ कोने में
दोनों
हाथ हैं फेंके हुए
दुसरे
कोने में
टांगें
हैं पड़ीं
बीच
कमरे में गिरा है धड़ मिरा
इक
तिपाई पर
सलीके
से सजा है सर मिरा
मेरी
आँखें झांकती हैं
मेज़
के शो केस से ...
ये
मंज़र देखना
मेरा
मुक़द्दर बन चूका है
मगर
अब इन् मनाज़िर से
मुझे
दहशत ही होती है
न
वहशत का कोई आलम
मिरे
दिल पर गुज़रता है
बड़े
आराम से
यक्जा
किया करता हूँ
मैं
अपने जिस्म के टुकड़े
सलीके
से इन्हें तर्तीब दे कर
केमिकल
से जोड़ देता हूँ ....
न
जाने क्यूं मगर
तर्तीब
में
इक
चूक होती है हमेशा
मेरी
आँखें
जड़ी
होती हैं
मेरी
पीठ पर .....
आलम खुर्शीद
9835871919