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तिश्ना कामी का सुलगता हुआ एहसास लिये - सालिम शुजा अंसारी

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तिश्ना कामी का सुलगता हुआ एहसास लिये
लौट आया हूँ मैं, दरिया से नई प्यास लिये

वक़्त ने नौच ली चेहरे से तमाज़त लेकिन
मैं भटकता हूँ अभी तक वही बू बास लिये

ये अगर सर भी उतारें, तो क़बाहत क्या है
लोग आये हैं , मिरे दर पे बड़ी आस लिये

मुन्तख़िब होगी बयाज़ों की ज़ख़ामत अब के
और मैं हूँ यहाँ इक पुर्ज़ा ए क़िरतास लिये

आज़माइश है शहीदान ए वफ़ा की "सालिम"
मैं तह ए ख़ाक हूँ गन्जीना ए इनफ़ास लिये
~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•~•
📚{लुग़त}📚
तिश्ना कामी=प्यास, तमाज़त=चमक, क़बाहत= दिक्क़त, मुनतख़िब= चुना जाना, बयाज़= वो डायरी जिस पर शेर नोट होते हैं, ज़ख़ामत= मोटाई, पुर्ज़ा ए क़िरतास= काग़ज़ का टुकड़ा, गंजीना= ख़ज़ाना, इनफ़ास= साँसें

निशाँ पाया,.....न कोई छोर निकला - सालिम शुजा अन्सारी

निशाँ पाया,.....न कोई छोर निकला

मुसाफ़िर क्या पता किस ओर निकला


अपाहिज लोग थे सब कारवाँ में

सितम ये राहबर भी कोर निकला


जिसे समझा था मैं दिल की बग़ावत

महज़..वो धड़कनों का शोर निकला


निवाला बन गया मैं.... ज़िन्दगी का

तुम्हारा ग़म तो आदमख़ोर निकला


दिये भी....लड़ते लड़ते थक चुके हैं

अँधेरा इस ...क़दर घनघोर निकला


हुआ पहले क़दम पर ही शिकस्ता

करूँ क्या हौसला कमज़ोर निकला


सुना ये था, है दुनिया गोल "सालिम"

मगर नक़्शा तो ये चौकोर निकला


सालिम शुजा अन्सारी
9837659083



बहरे हज़ज  मुसद्दस महजूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन ,

1222 1222 122

हो सके तो ये ज़मीं-आसमाँ.....यकजा कर दे - सालिम शुजा अंसारी

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सालिम शुजा अंसारी

हो सके तो ये ज़मीं-आसमाँ.....यकजा कर दे
या मुझे उसका बना.........या उसे मेरा कर दे

मुद्दतों बाद.......वो उभरा है.....मिरी यादों में
आज की रात..... ऐ दुनिया मुझे तन्हा कर दे

जब भी जी चाहे मैं दीदार करूँ ख़ुद अपना
ए मिरी रूह......मेरे जिस्म को हुजरा कर दे

एक मुद्दत से अँधेरों की हैं...आदी.......आँखें
ये भी मुमकिन है कि सूरज मुझे अन्धा कर दे

प्यास बख़्शी है..तो फिर सब्र को चट्टान बना
और फिर..रेत के सेहराओं को दरिया कर दे

सर उठाता हूँ तो.......सर से मिरे टकराता है
एक बालिश्त.......कोई आसमाँ ऊँचा कर दे

दब न जाये...कहीं अहसान के नीचे ये ज़मीर
हो न कुछ यूँ.....कि मुझे ज़िन्दगी मुर्दा कर दे

नोच..तहरीर से अल्फ़ाज़ के ख़ुशरंग लिबास
ऐ हक़ीक़त......मिरे अहसास को नंगा कर दे

मेरे काँधों से ....मिरा सर ही उतारे "सालिम"
कोई तो हो...जो मिरा बोझ ये हलका कर दे


सालिम शुजा अंसारी
9837659083

बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन

2122 1122 1122 22

ब्रज गजल - सालिम शुजा अन्सारी

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सालिम शुजा अंसारी 


ब्यर्थ कौ चिन्तन-चिरन्तन का करैं
म्हों इ टेढौ है तौ दरपन का करैं

देह तज डारी तुम्हारे नेह में
या सों जादा और अरपन का करैं

आतमा बिरहिन बिरह में बर रई
या में भादों और सावन का करैं

प्रेम कौ अमरित निकसनौ नाँय तौ
क्षीर-सागर तेरौ मंथन का करैं

ढेर तौ होनो इ है इक रोज याहि
काया माटी कौ है बर्तन का करैं
 
झर रहे हैं डार सों पत्ता सतत
बोल कनुआ तेरे मधुबन का करैं

ब्रज-गजल कौं है गरज पच्चीस की 
चार छः "सालिम" बिरहमन का करैं
 
·        

बात नहीं है कछु तो फिर बतरामें चौं...
सुनबे बारौ कोई नाय,.... टर्रामें चौं...

तैने सिगरी पोथी चौपड़ चाट लई...
हम मूरख हैं हम तोकूँ समझामें चौं...

दाता ने दुई आँख दई ऐं देखन कूँ...
अँधे हैं का..अँधन से टकरामें चौं...

दास हमईं हैं हमईं द्वार तक जानो है...
बे राजन हैं बे कुटिया तक आमें चौं...
 
जानत हैं हम चार दिनन कौ है मंगल...
झूमें...नाचें..इठलामें ...इतरामें चौं...

हम हूँ कान्हा की नगरी के बासी हैं...
कोऊ-काऊ से पीछे हम रह जामें चौं..

थोड़ी तो कट गई थोड़ी कट जामेगी...
रोबें...पीटें...चीखें...और चिल्लामें चौं...

हम पे का आरोप धरोगे तुम सोचो...
हम निश्छल हैं हम तुम सूँ सरमामें चौं...

दुनिया तो इक माया मोह का जाला है..
जीवन पन्छी कौ जामें उलझामें चौं...

तुमने अपुनी सूरत ही बिसराय दई...
तुम को "सालिम" इब दरपन दिखलामें चौं..
 
·        


अपने दामन में काँटे भरें जातु ऐं
लोग जीवे की खातिर मरें जातु ऐं....

जो खुदा सूँ सबन कूँ डरावत रहे....
अपनी परछाईं'अन सूँ डरें जातु ऐं....

पीर पक कें हरे ह्वै गए जो जखम
बे जखम ही दरद कूँ हरें जातु ऐं...

हम नें तोहरे नगर की डगर तज दई
हर अमानत हू बापस धरें जातु ऐं...

भूल कें हू हमें बिस्व भूलै नहीं
काम कछ ऐसौ हम हू करें जातु ऐं..

कछ निसाने निसाने पै 'सालिम' लगे
कछ निसाने छटक कें परें जातु ऐं...
 
·       


अग्रसर है आजकल असर नयौ-नयौ। 
रहगुजर नई-नई सफर नयौ-नयौ॥

इक पुरानी ठौर ही सो टौर बन गई। 
अब हमन कों चाँहियै खँडर नयौ-नयौ॥ 

चार दिन ठहर तौ जाउ काढ दिंगे हम। 
मन में आज ही बसौ है डर नयौ-नयौ॥ 

हौलें-हौलें होयगौ भलाई कौ असर। 
आज ही पियौ है यै जहर नयौ-नयौ॥ 

जैसें ही लड़ो सों बाप की नजर मिलीं। 
है गयौ दुपट्टा तर-ब-तर नयौ-नयौ॥

सासरौ, सजन, ससुर, नये सगे'न के संग। 
लग रह्यौ है बाप कौ हू घर नयौ-नयौ॥ 

नयी नवेली दुलहनी कौ चित्त है उदास। 
मन में उठ रह्यौ है इक भँवर नयौ-नयौ॥

'सालिम' एक दिन चमक उतर ही जायगी। 
और कै दिना रहैगौ घर नयौ-नयौ||
 
·        


बोझ मन सूँ जबै आसा'न के हट जामतु ऐं...
सबै आकास हु धरती सूँ लिपट जामतु ऐं....

बेदना मन की जो आ पामें न मन सूँ बाहर.....
टीस बन-बन कें बे सब्दन में सिमट जामतु ऐं....

का कहें कौन सूँ और कौन सुनैगौ अपनी....
सोर इत्तो है कि इब कान ही फट जामतु ऐं....

मन बटोही जो कबहुँ प्रेम डगर कूँ निकसै....
ईंट पत्थर सूँ डगर सगरी ही अट जामतु ऐं...

एक लँग मन है तौ इक लंग मेरी हुसियारी...
राह हर मोड़ दुराहे'न में फट जामतु ऐं....

साँच कों दैनी परै अग्नि परीक्षा "सालिम"...
झूट के हक्क में कानून उलट जामतु ऐं....
 


·        
म्हों चलावे को बस हुनर आवे....
सिर्फ तोकूँ बकर बकर आवे....

दै दियो है गलत पतो सब कूँ...
कोई आवे तो फिर किधर आवे....

थोबड़े सिगरे अजनबी लागें....
कोई अपुनों कहूँ नजर आवे....

बैठ ले कबहुँ  साधु सन्तन में....
मन पे सायद कछू असर आवे....

पाँव घायल भये हैं मखमल सूँ...
अब तो काँटन भरी डगर आवे....

शीशमहलन में आके भी मोकूँ...
याद अपुनों वही खण्डर आवे..

बाको भूला तो मत कहो 'सालिम'....
भोर निकरे जो साँझ घर आवे....
 
·        


होरी को वो रंग रच्यौ है तन मन में
हुरियारे हुरियाय रहे हैं गैलन में

रंग बिरंगी पिचकारी में भर के रंग
अच्छे खासे खोये गये हैं बचपन में

लिपटन चिपटन के उबटन की बलिहारी
प्रेम हिलौरें मार रयो है कन-कन में

अंगन सौं हिल मिल कें रंग भये खुसरंग
छई अबीर गुलाल छटा हर आँगन में

जहँ देखो तहँ बम भोले के जयकारे
भंग बँट रही है कुल्ला और कुलियन में

भँग चढ़ाये चुके जो वे सिगरे भँगड़ी
मगन होये रहे देख देख मुख दरपन में

होरी में सब झनक रहे हैं यों"सालिम"
जैसे गुपियन की पायलिया मधुबन में

·        


सालिम शुजा अन्सारी
9837659083
ब्रजगजल


गुबार-ए-फ़िक्र को तहरीर करता रहता हूँ - सालिम शुजा अन्सारी


गुबार-ए-फ़िक्र को तहरीर करता रहता हूँ
मैं अपना दर्द हमागीर करता रहता हूँ

रिदा-ए-लफ़्ज़ चढ़ाता हूँ तुरबते-दिल पर
ग़ज़ल को ख़ाके-दरे-मीर करता रहता हूँ

नवर्द-आज़मा हो कर हयात से अपनी
हमेशा फ़त्ह की ताबीर करता रहता हूँ

न जाने कौन सा ख़ाका कमाले-फ़न ठहरे
हर इक ख़याल को तसवीर करता रहता हूँ

बदलता रहता हूँ गिरते हुए दरो-दीवार
मकाने-ख़स्ता में तामीर करता रहता हूँ

लहू रगों का मसाफ़त निचोड़ लेती है
मैं फिर भी ख़ुद को सफ़र-गीर करता रहता हूँ

उदास रहती हैं मुझ में सदाक़तें मेरी
मैं लब कुशाई में ताखीर करता रहता हूँ

सदाएँ देती हैं सालिम बुलन्दियाँ लेकिन
ज़मीं को पाँव की ज़ंजीर करता रहता हूँ



तहरीर करना – लिखना, शब्दांकित करना, रिदा-ए-लफ़्ज़ – शब्दों
की चादर, तुरबत – क़ब्र, हयात – जीवन, ताबीर – कोशिश,
हमागीर – फैलाने के संदर्भ में, तामीर – निर्माण, मसाफ़त – यात्रा,
सफ़र-गीर, यात्रा में व्यस्त, लबकुशई, ताखीर,


सालिम शुजा अन्सारी
9837659083


बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ
मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
1212 1122 1212 22

चोट पर उसने फिर लगाई चोट - सालिम शुजा अन्सारी

चोट पर उसने फिर लगाई चोट
हो गई और भी सिवाई चोट

उम्र भर ज़ख्म बोए थे उस ने
उम्र भर हम ने भी उगाई चोट

मरहम ए एतबार की खातिर
मुद्दतों खून में नहाई चोट

दिल का हर ज़ख्म मुस्करा उठा
देख कर उसको याद आई चोट

होंठ जुम्बिश न कर सके लेकिन
कर गई फिर भी लब क़ुशाई चोट

आज बे साख्ता वो याद आया
आज मौसम ने फिर लगाई चोट

मिट गए सब निशान ज़ख्मों के
कर गई आज बे वफ़ाई चोट

ज़र्ब यूँ तो बदन पे थी “सालिम ”
रूह तक कर गयी रसाई चोट

:- सालिम शुजा अन्सारी
9837659083

बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मख़बून
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
2122 1212 22