30 नवंबर 2014

ग़ज़लें - मनोहर शर्मा सागर पालमपुरी

मनोहर शर्मा सागर पालमपुरी
[आप की ग़ज़लें आप के सुपुत्र भाई द्विजेंद्र द्विज
 [+91 9418465008] जी से साभार प्राप्त हुईं]


ख़ंजर—ब—क़फ़ है साक़ी तो साग़र लहू—लहू
है सारे मयकदे ही का मंज़र लहू—लहू

शायद किया है चाँद ने इक़दाम—ए—ख़ुदकुशी
पुरकैफ़ चाँदनी की है चादर लहू—लहू

हर—सू दयार—ए—ज़ेह्न में ज़ख़्मों के हैं गुलाब
है आज फ़स्ल—ए—गुल का तसव्वुर लहू—लहू

अहले—जफ़ा तो महव थे ऐशो—निशात में
होते रहे ख़ुलूस के पैक़र लहू—लहू

लाया है रंग ख़ून किसी बेक़ुसूर का
देखी है हमने चश्म—ए—सितमगर लहू—लहू

डूबी हैं इसमे मेह्र—ओ—मरव्वत की कश्तियाँ
है इसलिए हवस का समंदर लहू—लहू

क्या फिर किया गया है कोई क़ैस संगसार?
वीरान रास्तों के हैं पत्थर लहू—लहू

साग़र’ सियाह रात की आगोश के लिए
सूरज तड़प रहा है उफ़क़ पर लहू—लहू.





खा गया वक्त हमें नर्म निवालों की तरह
हसरतें हम पे हसीं ज़ोहरा—जमालों की तरह

रूह की झील में चाहत के कँवल खिलते हैं
किसी बैरागी के पाक़ीज़ा ख़यालों की तरह

थे कभी दिल की जो हर एक तमन्ना का जवाब
आज क्यों ज़ेह्न में उतरे हैं सवालों की तरह ?

साथ उनके तो हुआ लम्हों में सालों का गुज़र
उनसे बिछुड़े तो लगे लम्हे भी सालों की तरह

ज़ख़्म तलवार के गहरे भी हों भर जाते हैं
लफ़्ज़ तो दिल में उतर जाते हैं भालों की तरह

हम समझते रहे कल तक जिन्हें रहबर अपने
पथ से भटके वही आवारा ख़्यालों की तरह

इनको कमज़ोर न समझो कि किसी रोज़ ये लोग
मोड़ देंगे इसी शमशीर को ढालों की तरह

फूल को शूल समझते हैं ये दुनिया वाले
बीते इतिहास के विपरीत हवालों की तरह

आफ़रीं उनपे जो तौक़ीर—ए—वतन की ख़ातिर
दार पर झूल गए झूलने वालों की तरह

हम भरी भीड़ में हैं आज भी तन्हा—तन्हा
अह्द—ए—पारीना के वीरान शिवालों की तरह

ग़म से ना—आशना इंसान का जीना है फ़ज़ूल
ज़ीस्त से लिपटे हैं ग़म पाँवों के छालों की तरह

अब कन्हैया है न हैं गोपियाँ ब्रज में ‘साग़र’
हम हैं फ़ुर्क़तज़दा मथुरा के गवालों की तरह.



है कितनी तेज़ मेरे ग़मनवाज़ मन की आँच
हो जिस तरह किसी तपते हुए गगन की आँच

जहाँ से कूच करूँ तो यही तमन्ना है
मेरी चिता को जलाए ग़म—ए—वतन की आँच

कहाँ से आए ग़ज़ल में सुरूर—ओ—सोज़ो—गुदाज़?
हुई है माँद चराग़—ए—शऊर—ए—फ़न की आँच

उदास रूहों में जीने की आरज़ू भर दे
लतीफ़ इतनी है ‘साग़र’ मेरे सुख़न की आँच.




छोड़े हुए गो उसको हुए है बरस कई
लेकिन वो अपने गाँव को भूला नहीं अभी

वो मदरिसे, वो बाग़, वो गलियाँ ,वो रास्ते
मंज़र वो उसके ज़ेह्न पे हैं नक़्श आज भी

मिलते थे भाई भाई से, इक—दूसरे से लोग
होली की धूम— धाम हो या ईद की ख़ुशी

मज़हब का था सवाल न थी ज़ात की तमीज़
मिल—जुल के इत्तिफ़ाक से कटती थी ज़िन्दगी

लाया था शहर में उसे रोज़ी का मसअला
फिर बन के रह गया वही ज़ंजीर पाँव की

है कितनी बेलिहाज़ फ़िज़ा शह्र की जहाँ
ना—आशना हैं दोस्त तो हमसाये अजनबी

माना हज़ारों खेल तमाशे हैं शह्र में
साग़र’ है अपने गाँव की कुछ बात और ही.



ख़िज़ाँ के दौर में हंगामा—ए—बहार थे हम
ख़ुलूस—ओ—प्यार के मौसम की यादगार थे हम

चमन को तोड़ने वाले ही आज कहते हैं
वो गुलनवाज़ हैं ग़ारतगर—ए—बहार थे हम

शजर से शाख़ थी तो फूल शाख़ से नालाँ
चमन के हाल—ए—परेशाँ पे सोगवार थे हम

हमें तो जीते —जी उसका कहीं निशाँ न मिला
वो सुब्ह जिसके लिए महव—ए—इंतज़ार थे हम

हुई न उनको ही जुर्रत कि आज़माते हमें
वग़र्ना जाँ से गुज़रने को भी तैयार थे हम

जो लुट गए सर—ए—महफ़िल तो क्या हुआ ‘साग़र’
अज़ल से जुर्म—ए—वफ़ा के गुनाहगार थे हम.



अपनी मंज़िल से कहीं दूर नज़र आता है
जब मुसाफ़िर कोई मजबूर नज़र आता है

घुट के मर जाऊँ मगर तुझ पे न इल्ज़ाम धरूँ
मेरी क़िस्मत को ये मंज़ूर नज़र आता है

आज तक मैंने उसे दिल में छुपाए रक्खा
ग़म—ए—दुनिया मेरा मश्कूर नज़र आता है

है करिश्मा ये तेरी नज़र—ए—करम का शायद
ज़र्रे—ज़र्रे में मुझे नूर नज़र आता है

उसकी मौहूम निगाहों में उतर कर देखो
उनमें इक ज़लज़ला मस्तूर नज़र आता है

खेल ही खेल में खाया था जो इक दिन मैंने
ज़ख़्म ‘साग़र’ वही नासूर नज़र आता है 

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