12 अगस्त 2016

ब्रज गजल - सालिम शुजा अन्सारी

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सालिम शुजा अंसारी 


ब्यर्थ कौ चिन्तन-चिरन्तन का करैं
म्हों इ टेढौ है तौ दरपन का करैं

देह तज डारी तुम्हारे नेह में
या सों जादा और अरपन का करैं

आतमा बिरहिन बिरह में बर रई
या में भादों और सावन का करैं

प्रेम कौ अमरित निकसनौ नाँय तौ
क्षीर-सागर तेरौ मंथन का करैं

ढेर तौ होनो इ है इक रोज याहि
काया माटी कौ है बर्तन का करैं
 
झर रहे हैं डार सों पत्ता सतत
बोल कनुआ तेरे मधुबन का करैं

ब्रज-गजल कौं है गरज पच्चीस की 
चार छः "सालिम" बिरहमन का करैं
 
·        

बात नहीं है कछु तो फिर बतरामें चौं...
सुनबे बारौ कोई नाय,.... टर्रामें चौं...

तैने सिगरी पोथी चौपड़ चाट लई...
हम मूरख हैं हम तोकूँ समझामें चौं...

दाता ने दुई आँख दई ऐं देखन कूँ...
अँधे हैं का..अँधन से टकरामें चौं...

दास हमईं हैं हमईं द्वार तक जानो है...
बे राजन हैं बे कुटिया तक आमें चौं...
 
जानत हैं हम चार दिनन कौ है मंगल...
झूमें...नाचें..इठलामें ...इतरामें चौं...

हम हूँ कान्हा की नगरी के बासी हैं...
कोऊ-काऊ से पीछे हम रह जामें चौं..

थोड़ी तो कट गई थोड़ी कट जामेगी...
रोबें...पीटें...चीखें...और चिल्लामें चौं...

हम पे का आरोप धरोगे तुम सोचो...
हम निश्छल हैं हम तुम सूँ सरमामें चौं...

दुनिया तो इक माया मोह का जाला है..
जीवन पन्छी कौ जामें उलझामें चौं...

तुमने अपुनी सूरत ही बिसराय दई...
तुम को "सालिम" इब दरपन दिखलामें चौं..
 
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अपने दामन में काँटे भरें जातु ऐं
लोग जीवे की खातिर मरें जातु ऐं....

जो खुदा सूँ सबन कूँ डरावत रहे....
अपनी परछाईं'अन सूँ डरें जातु ऐं....

पीर पक कें हरे ह्वै गए जो जखम
बे जखम ही दरद कूँ हरें जातु ऐं...

हम नें तोहरे नगर की डगर तज दई
हर अमानत हू बापस धरें जातु ऐं...

भूल कें हू हमें बिस्व भूलै नहीं
काम कछ ऐसौ हम हू करें जातु ऐं..

कछ निसाने निसाने पै 'सालिम' लगे
कछ निसाने छटक कें परें जातु ऐं...
 
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अग्रसर है आजकल असर नयौ-नयौ। 
रहगुजर नई-नई सफर नयौ-नयौ॥

इक पुरानी ठौर ही सो टौर बन गई। 
अब हमन कों चाँहियै खँडर नयौ-नयौ॥ 

चार दिन ठहर तौ जाउ काढ दिंगे हम। 
मन में आज ही बसौ है डर नयौ-नयौ॥ 

हौलें-हौलें होयगौ भलाई कौ असर। 
आज ही पियौ है यै जहर नयौ-नयौ॥ 

जैसें ही लड़ो सों बाप की नजर मिलीं। 
है गयौ दुपट्टा तर-ब-तर नयौ-नयौ॥

सासरौ, सजन, ससुर, नये सगे'न के संग। 
लग रह्यौ है बाप कौ हू घर नयौ-नयौ॥ 

नयी नवेली दुलहनी कौ चित्त है उदास। 
मन में उठ रह्यौ है इक भँवर नयौ-नयौ॥

'सालिम' एक दिन चमक उतर ही जायगी। 
और कै दिना रहैगौ घर नयौ-नयौ||
 
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बोझ मन सूँ जबै आसा'न के हट जामतु ऐं...
सबै आकास हु धरती सूँ लिपट जामतु ऐं....

बेदना मन की जो आ पामें न मन सूँ बाहर.....
टीस बन-बन कें बे सब्दन में सिमट जामतु ऐं....

का कहें कौन सूँ और कौन सुनैगौ अपनी....
सोर इत्तो है कि इब कान ही फट जामतु ऐं....

मन बटोही जो कबहुँ प्रेम डगर कूँ निकसै....
ईंट पत्थर सूँ डगर सगरी ही अट जामतु ऐं...

एक लँग मन है तौ इक लंग मेरी हुसियारी...
राह हर मोड़ दुराहे'न में फट जामतु ऐं....

साँच कों दैनी परै अग्नि परीक्षा "सालिम"...
झूट के हक्क में कानून उलट जामतु ऐं....
 


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म्हों चलावे को बस हुनर आवे....
सिर्फ तोकूँ बकर बकर आवे....

दै दियो है गलत पतो सब कूँ...
कोई आवे तो फिर किधर आवे....

थोबड़े सिगरे अजनबी लागें....
कोई अपुनों कहूँ नजर आवे....

बैठ ले कबहुँ  साधु सन्तन में....
मन पे सायद कछू असर आवे....

पाँव घायल भये हैं मखमल सूँ...
अब तो काँटन भरी डगर आवे....

शीशमहलन में आके भी मोकूँ...
याद अपुनों वही खण्डर आवे..

बाको भूला तो मत कहो 'सालिम'....
भोर निकरे जो साँझ घर आवे....
 
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होरी को वो रंग रच्यौ है तन मन में
हुरियारे हुरियाय रहे हैं गैलन में

रंग बिरंगी पिचकारी में भर के रंग
अच्छे खासे खोये गये हैं बचपन में

लिपटन चिपटन के उबटन की बलिहारी
प्रेम हिलौरें मार रयो है कन-कन में

अंगन सौं हिल मिल कें रंग भये खुसरंग
छई अबीर गुलाल छटा हर आँगन में

जहँ देखो तहँ बम भोले के जयकारे
भंग बँट रही है कुल्ला और कुलियन में

भँग चढ़ाये चुके जो वे सिगरे भँगड़ी
मगन होये रहे देख देख मुख दरपन में

होरी में सब झनक रहे हैं यों"सालिम"
जैसे गुपियन की पायलिया मधुबन में

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सालिम शुजा अन्सारी
9837659083
ब्रजगजल


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