ये तय है कि जलने से न बच पाओगे तुम भी ।
शोलों को हवा दोगे, तो पछताओगे तुम भी ।
पत्थर की तरह लोग ज़माने में मिलेंगे
शीशे की तरह टूट के रह जाओगे तुम भी ।
बाज़ार में ईमान को तुम बेच तो आये
आईना जो देखोगे तो शरमाओगे तुम भी ।
मंज़िल की तरफ़ शाम ढले चल तो पड़े हो
रस्ता वो ख़तरनाक है, लुट जाओगे तुम भी ।
रावण की तरह हश्र न हो जाए तुम्हारा
सीता को छलोगे तो सज़ा पाओगे तुम भी ।
बहरे
हजज़ मुसमन अख़रब
मक्फ़ूफ
मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ महज़ूफ़
मफ़ऊलु
मुफ़ाईलु मुफ़ाईलु फ़ऊलुन
221
1221 1221 122
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बाग़ों की रौनक़ ख़तरे में, हरियाली ख़तरे में है
।
कुछ तो सोचो, पेड़ों की डाली-डाली ख़तरे
में है ।
जाने कैसे दिन आयें, अब जाने कैसा दौर आये
कहते हैं अख़बार वतन की खुशहाली ख़तरे में है ।
धीरे-धीरे जाग रही है मुद्दत से सोयी जनता
तुमने धोखे से जो सत्ता हथिया ली, ख़तरे
में है ।
लाखों नंगे-भूखों से अपने भोजन की रक्षा कर
चांदी की चम्मच और सोने की थाली ख़तरे में है ।
मज़हब के मारों से हमको बचकर रहना है ‘आकाश‘
ख़तरे में है ईद-मुहर्रम, दीवाली ख़तरे में है
।
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आंखों का हर ख़्वाब सुनहरा तेरे नाम ।
अब जीवन का लमहा-लमहा तेरे नाम ।
मुरझायी पंखुड़ियां मेरा सरमाया
ताज़ा फूलों का गुलदस्ता तेरे नाम ।
गहरे अंधेरे मुझको रास आ जायेंगे
जुगनू, तारे, सूरज-चन्दा तेरे नाम ।
तेरे होठों की सुर्ख़ी बढ़ती जाए
मेरे ख़ूं का क़तरा-क़तरा तेरे नाम ।
ख़ारों पे मेरा हक़ क़ायम रहने दे
पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा तेरे नाम ।
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मन्दिरों में, मस्जिदों में पायी जाती है अफ़ीम
।
आदमी का ख़ून सड़कों पर बहाती है अफ़ीम ।
राम मन्दिर जानती है, या कि मस्जिद बाबरी
आदमी का मोल कब पहचान पाती है अफ़ीम ।
आपसी सद्भाव जलकर ख़ाक हो जाता है दोस्त
आग नफ़रत की हरेक जानिब लगाती है है अफ़ीम ।
धर्म, ईश्वर के अलावा और कुछ दिखता नहीं
यों दिमाग़ो-दिल पे इन्सानों के छाती है अफ़ीम ।
बिछ गयी लाशें ही लाशें, शहर ख़ूं से धुल गया
फिर भी कहते हो कि इक अनमोल थाती है अफ़ीम ।
है कोई सच्चा मुसलमां, और कोई रामभक्त
देखिये ’आकाश’ क्या-क्या गुल खिलाती है
अफ़ीम ।
बहरे
रमल मुसम्मन महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन
फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
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अजीत शर्मा 'आकाश'
098380 78756
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