6 अगस्त 2016

हाय वो रुत भी क्या सुहानी थी - नवीन

हाय वो रुत भी क्या सुहानी थी
मैं भी सुनता था तू भी सुनती थी
तू मेरे सड़्ग-सड़्ग बरसों-बरस
जंगलों-जंगलों भटकती थी
क्यों न सुन्दर हों मेरी तसवीरें
रंग तू ही तो इन में भरती थी
कुछ सबक तूने भी सिखाये हैं
तू भी लड़ती थी तू भी जिद्दी थी
कैसे कह दूँ कि तब ज़हीन था मैं
जब तू मेरी कनीज़ होती थी
मैं जो सहरा था बन गया दरिया
तू फ़ना हो गयी जो नद्दी थी
मैं तो हमले में मारा जाता था
जीते जी तू चिता पे सोती थी
खेत-खलिहान जानते थे उसे
जिस के दम से रसोई चलती थी
भूल जाती थी तू तेरे अरमान
जब तबीयत मेरी मचलती थी
अपने अब्बा की लाज रखने को
उन की हर बात मान लेती थी
अपने भाई की फीस की ख़ातिर
अपना पढना ही छोड़ देती थी
माँ की आँखें न भीग जाएँ कहीं
इस लिये हर सितम को सहती थी
मेरे जैसों से डर के तू अक्सर
घर से बाहर नहीं निकलती थी
वो तो मैं ने ही तुझ को रोक लिया
वरना तू ने उड़ान भरनी थी
चल क़लम हाथ में उठा ले अब
वो क़लम जिस को तू बनाती थी
मत ज़माने से पूछ कोई सवाल
ये रियाया तो कल भी गूँगी थी
टोकने वालों को बता देना
उन की अम्मा भी एक लड़की थी
बोलना दौर अब नहीं है वो
जब कि तू घर में क़ैद रहती थी
काश मर्दों को यह समझ आये
उन की अम्मा भी एक लड़की थी

नवीन सी चतुर्वेदी
बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मख़बून
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
2122 1212 22


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