गिरही-ग़ज़ल:-
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मयंक भाई को जानने वाले जानते हैं कि कमेण्ट्स में फिलबदी शेर कहने के अलावा दीगर शोरा हजरात की पूरी की पूरी ग़ज़ल के सानी मिसरों (second line) को गिरह करते हुये (adding new first line over the original second line and ensuring this does not present parody) एक नयी ग़ज़ल पेश करना मयंक जी का बड़ा ही प्यारा शगल है। कई मरतबा इन्होंने मुझ से भी ऐसा करने के लिये कहा। संकोचवश मैं ऐसा कभी कर ही नहीं पाया। मगर इस बार गिरही-ग़ज़ल कहने की कोशिश की है। मुझे लगता ऐसी ग़ज़लों को शायद गिरही-ग़ज़ल ही कहा जाता होगा। तो हजरात! मेरी तरफ़ से पेश है यह गिरही-ग़ज़ल जिस में मयंक भाई साब की ग़ज़ल के सानी मिसरों को गिरह किया गया है:-
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मयंक भाई को जानने वाले जानते हैं कि कमेण्ट्स में फिलबदी शेर कहने के अलावा दीगर शोरा हजरात की पूरी की पूरी ग़ज़ल के सानी मिसरों (second line) को गिरह करते हुये (adding new first line over the original second line and ensuring this does not present parody) एक नयी ग़ज़ल पेश करना मयंक जी का बड़ा ही प्यारा शगल है। कई मरतबा इन्होंने मुझ से भी ऐसा करने के लिये कहा। संकोचवश मैं ऐसा कभी कर ही नहीं पाया। मगर इस बार गिरही-ग़ज़ल कहने की कोशिश की है। मुझे लगता ऐसी ग़ज़लों को शायद गिरही-ग़ज़ल ही कहा जाता होगा। तो हजरात! मेरी तरफ़ से पेश है यह गिरही-ग़ज़ल जिस में मयंक भाई साब की ग़ज़ल के सानी मिसरों को गिरह किया गया है:-
बोझ उलफ़त का उठा ही नहीं दम भर हम से।
इल्म की आख़िरी मंज़िल न हुई सर हमसे॥
इल्म की आख़िरी मंज़िल न हुई सर हमसे॥
हम तो साहिल प ख़मोशी से खड़े रहते हैं।
दौड़ कर ख़ुद ही लिपटते हैं समुन्दर हमसे॥
दौड़ कर ख़ुद ही लिपटते हैं समुन्दर हमसे॥
आप को भी तो सताइश* की तमन्ना होगी।
पूछता है बड़ी हसरत से सुख़नवर हमसे॥
* प्रशंसा, तारीफ़
पूछता है बड़ी हसरत से सुख़नवर हमसे॥
* प्रशंसा, तारीफ़
हम को जब उस से बिछुड़ना ही नहीं है तो फिर।
तुम ही बतलाओ जुदा होगा वो क्योंकर हमसे॥
तुम ही बतलाओ जुदा होगा वो क्योंकर हमसे॥
कैसे बन्दे थे कि मजनूँ प उछाले पत्थर।
हम तो चाहें भी तो उठता नहीं पत्थर हमसे॥
हम तो चाहें भी तो उठता नहीं पत्थर हमसे॥
वो भी क्या दिन थे कि पहलू में सहर* होती थी।
अब तो रखते हैं सनम ख़ुद को बचाकर हमसे॥
* सुबह
अब तो रखते हैं सनम ख़ुद को बचाकर हमसे॥
* सुबह
आप की धूप को हर-सम्त* बिखरना ही नहीं।
आओ ले जाओ मियाँ अपनी धरोहर हमसे॥
* हर ओर
आओ ले जाओ मियाँ अपनी धरोहर हमसे॥
* हर ओर
जब से पूछा है – कमी क्या थी – तभी से ही बस।
मुँह चुराता है हमारा ही मुक़द्दर हमसे॥
मुँह चुराता है हमारा ही मुक़द्दर हमसे॥
मन में आया सो ग़ज़ल हम ने गिरह कर दी ‘नवीन’।
(जो भी) अब जो कहना हो वो कह लीजिये (जी भर) प्रियवर हमसे॥
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(जो भी) अब जो कहना हो वो कह लीजिये (जी भर) प्रियवर हमसे॥
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मयंक भाईसाब की ओरिजिनल ग़ज़ल:-
आशना हो न सके प्यार के आखर* हमसे
इल्म की आखिरी मंज़िल न हुई सर हमसे
इल्म की आखिरी मंज़िल न हुई सर हमसे
हम तो साहिल हैं कहीं चल के नहीं जाते हैं
दौड कर खुद ही लिपटते हैं समन्दर हमसे
दौड कर खुद ही लिपटते हैं समन्दर हमसे
आप अश्कों की ज़ुबाँ कुछ तो समझते होंगे
पूछता है बडी हसरत से सुखनवर हमसे
पूछता है बडी हसरत से सुखनवर हमसे
दर्द सीने से लगाये हैं हमीं जब दिल का
तुम ही बतलाओ जुदा होगा वो क्योंकर हमसे
तुम ही बतलाओ जुदा होगा वो क्योंकर हमसे
हर समरदार शजर खुद ही झुका है इतना
हम तो चाहें भी तो उठता नहीं पत्थर हमसे
हम तो चाहें भी तो उठता नहीं पत्थर हमसे
हम भी ठोकर से सिला देने लगे ठोकर का
अब तो रखते हैं सनम खुद को बचाकर हमसे
अब तो रखते हैं सनम खुद को बचाकर हमसे
ये हैं जज़बात के टुकडे, ये तुम्हारा ख़ंजर
आओ ले जाओ मियाँ अपनी धरोहर हमसे
आओ ले जाओ मियाँ अपनी धरोहर हमसे
मुँह चिढाती है हमें हाय हमारी किस्मत
मुँह चुराता है हमारा ही मुकद्दर हमसे
मुँह चुराता है हमारा ही मुकद्दर हमसे
हम तो अब डूबती कश्ती के मुसाफिर हैं “मयंक”
जो भी कहना हो वो कह लीजिये जीभर हमसे
जो भी कहना हो वो कह लीजिये जीभर हमसे
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नवीन सी. चतुर्वेदी
बहरे
रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन
फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122
1122 1122 22
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