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माँ सरस्वती के चालीस नाम वाली सरस्वती वन्दना - नवीन

हे मरालासन्न वीणा-वादिनी माँ शारदे।

वागदेवीभारतीवर-दायिनी माँ शारदे॥

 

श्वेत पद्मासन विराजितवैष्णवी माँ- शारदे।

हे प्रजापति की सुताशतरूपिणी माँ शारदे।।

 

चंद्रिकासुर-वंदिताजग-वंदितावागेश्वरी।

कामरूपाचंद्रवदनामालिनी माँ शारदे॥

 

अम्बिकाशुभदासुभद्राचित्रमाल्यविभूषिता।

शुक्लवर्णाबुद्धिदासौदामिनी माँ शारदे॥

 

दिव्य-अंगापीतविमलारस-मयीभामाशिवा।

रक्त-मध्याविंध्यवासागोमती माँ शारदे॥

 

पद्म-निलयापद्म-नेत्रीरक्तबीजनिहंत्रिणी।

धूम्रलोचनमर्दनाअघ-नासिनी माँ- शारदे॥

 

हे महाभोगापरापथभ्रष्ट जग सन्तप्त है।

वृष्टि कीजै प्रेम कीअनुराग की माँ शारदे॥

 

नवीन सी चतुर्वेदी

ब्रज-गजल - अबू उभरै तौ है हिय में, गिरा के रूठवे कौ डर - नवीन

ब्रज-गजल - रूठवे कौ डर 
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अबू उभरै तौ है हिय में - गिरा1 के रूठवे कौ डर। 
मगर अब कम भयौ है - शारदा के रूठवे कौ डर॥

सलौने-साँवरे नटखट बिरज में जब सों तू आयौ। 
न जानें काँ गयौ - परमातमा के रूठवे कौ डर॥

सुदामा और कनुआ की कथा सों हम तौ यै सीखे। 
विनय के पद पढावै है - सखा के रूठवे कौ डर॥

कोऊ मानें न मानें वा की मरजी, हम तौ मानें हैं। 
हमें झुकवौ सिखावै है - सभा के रूठवे कौ डर॥

हहा अब तौ ठिठोली सों जमानौ रूठ जावें है। 
कहूँ गायब न कर डारै - ठहाके - रूठवे कौ डर॥

निरे सत्कर्म ही थोड़ें करावै माइ-बाप'न सों। 
कबू छल हू करावै है – सुता2 के रूठवे कौ डर॥

हमें तौ नाँय काऊ 'और' कों तकलीफ है तुम सों। 
डरावै है तुम्हें वा ही 'तथा' के रूठवे कौ डर॥

घनेरे लोग बीस'न बेर कुनबा कों डला कह'तें। 
डरावै है सब'न कों या डला के रूठवे कौ डर॥

'नवीन' इतिहास में हम जाहु नायक सों मिले, वा के। 
मगज में साफ देख्यौ - नायिका के रूठवे कौ डर॥

गिरह कौ शेर:- 
बड़ी मुस्किल सों रसिया रास कों राजी भयौ, लेकिन। 
"लली कौ जीउ धसकावै लला के रूठवे कौ डर"॥

1 वाणी, सरस्वती 2 बेटी


नवीन सी. चतुर्वेदी 

ब्रज-गजल - बिगर बरसात के रहबै, चमन के रूठबे कौ डर - उर्मिला माधव

बिगर बरसात के रहबै, चमन के रूठबे कौ डर
कहूँ जो ब्यार चल बाजी, घट'न के रूठबे कौ डर
खड़े हैं मोर्चा पै रात दिन सैनिक हमारे तईं,
रहै हर दम करेजे में,वतन के रूठबे कौ डर
जमाने भर की चिंता में बिगारैं काम सब अपने,
ऑ जाऊ पै लगौ रहबै,सब'न के रूठबे कौ डर
कब'उ बेटा कौ मुंडन है,कब'उ है ब्याह लाली कौ,
कहूँ नैक'उ कमी रह गई,बहन के रूठबे कौ डर,
अजब दुनिया कौ ढर्रा ऐ,सम्हर कें, सोच कें चलियो.
तनिक भी चूक है गई तौ सजन के रूठबे कौ डर...
उर्मिला माधव...

बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222


भैया अपनी ब्रजभासा की हालत अच्छी नाँय - नवीन



भैया! अपनी ब्रजभासा की हालत अच्छी नाँय
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हम खुस हैं लेकिन मैया की हालत अच्छी नाँय। 
कनुप्रिया रवि की तनुजा१ की हालत अच्छी नाँय॥ 

कौन सौ म्हों लै कें मनमोहन के ढिंग जामें हम।
वृन्दा के वन में वृन्दा२ की हालत अच्छी नाँय॥

गोप-गोपिका-गैया-बछरा-हरियाली-परबत।
नटनागर तेरे कुनबा की हालत अच्छी नाँय॥ 

बस इतनौ सन्देस कोऊ कनुआ तक पहुँचाऔ। 
श्याम! कदम्बन की छैंया की हालत अच्छी नाँय॥ 

सूधे-सनेह के मारग सों ऐसे-ऐसे गुजरे। 
मिटौ तौ नाँय मगर रस्ता की हालत अच्छी नाँय॥ 

झूठे-झकमारे लोगन की ऐसी किरपा भई।  
आज सत्यभाषी बट्टा३ की हालत अच्छी नाँय॥ 

जो''नवीन' उपाय है सकें, करने'इ होमंगे। 
भैया! अपनी ब्रजभासा की हालत अच्छी नाँय॥ 

१ यमुना २ वृन्दा यानि तुलसी का वन वृन्दावन ३ दर्पण


नवीन सी चतुर्वेदी 
ब्रज-गजल

ब्रज गजल - ब्रज भूषण चतुर्वेदी 'दीपक'

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ब्रज भूषण चतुर्वेदी 'दीपक' 

मन में जब सौं आन बसी है 
तेरी प्रीत सयानी सी ।
बिन बदरा के सावन बरस्यौ
दुनियाँ लगै दिवानी सी ।
बिना फूंक के बजी बंसुरिया 
नैया बिन पतवार चली ।
बिना पवन के नील गगन में
धुजा लगी फहरानी सी ।
हर मौसम मधुमास है गयौ 
हर आँगन ज्यौं फुलवारी ।
बाग़ बगीचन ओढ़ लई है 
आज चुनरिया धानी सी ।
भरे गाम के ताल तलैया 
बिन चौमासे झर लागे ।
कीच भई है आँगन आँगन
प्रीत रीत उमगानी सी ।
धरती अम्बर दिसा दिसा सब
तेरी सी उनिहार लगै ।
पूरी दुनियां दीखै तेरी मेरी 
प्रेम कहानी सी ।
ब्रज भूषण चतुर्वेदी दीपक
8057697209

ब्रज गजल

ब्रज गजल - नवीन

फोकट में भन्नाय रए हौ - हत का ऐ। 
खुद्द'इ गाल बजाय रए हौ - हत का ऐ॥
ज्ञानि'न कों भरमाय रए हौ - हत का ऐ। 
घी कों तेल बताय रए हौ - हत का ऐ॥
किसमत सों हीरा पायौ सो फेंक दियौ। 
मोति'न पै मगराय रए हौ - हत का ऐ॥
सैमइ कों तौ देखत ही म्हों फेरत हौ। 
चख-चख मैगी खाय रए हौ - हत का ऐ॥
बाहर बोलत हौ रोटि'न के लाले हैं। 
भीतर पाग पगाय रए हौ - हत का ऐ॥
जा कों देखत उलटी आवत हैं, ता कों। 
जमना में पधराय रए हौ - हत का ऐ॥
गोवरधन की महिमा हू बिसराय दई। 
सपरेटा चढवाय रए हौ - हत का ऐ॥
जहँ तुलसी कौ राज रह्यौ उन कुंज'न में। 
कंकरीट बिछवाय रए हौ - हत का ऐ॥
लक्ष्मी, काली, दुर्गा मैया के भगतौ।
बेटि'न कों बिदराय रए हौ - हत का ऐ॥
गैया कों मैया मानौ हौ तौ फिर चों। 
कट्टीघर खुलवाय रए हौ - हत का ऐ॥
'नवीन' जी हम कों तौ बस यै बतलाउ। 
विजया कब छनवाय रए हौ - हत का ऐ॥

नवीन सी. चतुर्वेदी


ब्रज गजल

ब्रज गजल - अशोक अज्ञ

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अशोक अज्ञ


जानै कैसै जीभ रपट गयी कहा करैं।
रही सही सब इज्जत घट गयी कहा करैं।।

खवा खवायकैं माल चटोरी कर दीनी।
माया देखी बात पलट गयी कहा करैं।।
 
कैसौ सुंदर सपनौ महलन कौ देखौ।
नैक देर में नींद उचट गयी कहा करैं।।
 
एक बंदरिया ऐसी रूठी विफर गयी।
धोती और लंगोटी फट गयी कहा करैं।।
 
कौन दया पै दया करैगौ बोलौ तुम।
अपनी तौ लाइन ही कट गयी कहा करैं।।




बखत आजकौ बदल गयौ है पहिचानौ।
मीठे बोल बोलिकैं भैया बतरानौ।।

धीरैं धीरैं पूछौ कैसै फूट गयीं।
काने ते कबहू मत कहियौं तुम कानौ।।

बेर बेर अंटा पै अंटा मत डारौ।
होयकठिन गाँठन कूँ फिर ते सुरझानौ।।

थोरौ भौत नसा दौलत कौ सबकूँ है।
रहै न नैकहु होस कि गहरी मत छानौ।।

देख गरीबन कूँ जिनके मन होय घिना।
नाक सिकोड़ें भौं मटकानौ इतरानौ।।

पढ़े लिखे हू उलटी इमला बाँच रहे।
भौत कठिन होय "अ ते ज्ञ "तक समझानौ।।
अशोक अज्ञ
9837287512


ब्रज गजल

ब्रज गजल - आर सी. शर्मा आरसी

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आर. सी. शर्मा आरसी


उन जैसी तकदीर कहाँ।
दार कहाँ और खीर कहाँ॥

अपनौ मन पीड़ागृह सौ।
बिनके मन में पीर कहाँ॥

आँखें अपनी धरती सी।
पर बादल कूँ पीर कहाँ॥

हम तौ मन में सबर करें।
बिनके हिय में धीर कहाँ॥

हम जकड़े हैं बेड़िन में।
उनके पग जंजीर कहाँ॥

बेध सकै उनके मन कूँ।
ऐसौ कोई तीर कहाँ॥

हम परदेसी या नगरी।
जे अपनी जागीर कहाँ॥

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आँख सौं आँख मिलाऔ तौ कछू बात बनै।
फासले मन के मिटाऔ तौ कछू बात बनै॥

रात भर याद चहलकदमी करै आँगन में।
भोर कूँ दरस दिखाओ तो कछू बात बनै॥

नेह की आस भरी सूखी भई आँखिन में।
चाह के दीप जराऔ तो कछू बात बनै॥

आजकल खूब सताबै है हमें इकलौपन।
आय कैं संग निभाऔ तो कछू बात बनै॥

जान पे आन बनी है सो कहा बतलामें।
आरसी कौं न सताऔ तो कछू बात बनै॥

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ज़िंदगी तेरी कहानी लिख रह्यौ हूँ।
आज बतियाँ फिर पुरानी लिख रह्यौ हूँ॥

कह न पायौ अनकही अबलौं रही जो।
ताहि गजलन की जबानी लिख रह्यौ हूँ॥

आँख तौ सूखी परीं हैं आज मेरी।
रोज बरखा रोज पानी लिख रह्यौ हूँ॥

अब तलक हिय पै लगे हैं घाव जितने।
सब तिहारी मेहरबानी लिख रह्यौ हूँ॥

पीर की पोथी भयौ जी आरसी कौ।
पीर अक्सर मैं बिरानी लिख रह्यौ रहूँ॥

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इतनौ सुन्दर तन-मन पायौ,
या सौं दुनियादारी मत कर।
फन दीनौ फनकार बनायौ,
या फन सौं गद्दारी मत कर॥

मेरी तेरी में भरमायौ,
सब में एकइ नूर समायौ,
जो काबे में सो कासी में,
तासौं तौ मक्कारी मत कर॥

राम जगत के पालनकरता,
सेवक हम वे करता-धरता,
तेरौऊ नंबर आनौ है,
फोकट नम्बरदारी मत कर॥

बिरथा इतनौ बोझ उठावै,
तेरे सोचे का है जावै,
ढोय-ढोय बोझन मर जावै,
मन कू इतनौ भारी मत कर॥

मंदिर मस्जिद कै गुरद्वारौ,
सबमें दाता एक हमारौ,
मन के भीतर जग के तीरथ,
तिन पै तौ बमबारी मत कर॥

जितनी साँस उधारी लायौ,
उनसौं अबलौं पाप कमायौ,
दूर नूर सौं करै "आरसी ",
अब ऐसी हुसियारी मत कर॥

आर सी. शर्मा आरसी
8769890505



ब्रज गजल