कभी ख़ुशियों का कभी ग़म का सिरा काटूँ हूँ - नवीन

कभी ख़ुशियों का कभी ग़म का सिरा काटूँ हूँ
उस की ख़ुशियों के लिये अपना गला काटूँ हूँ
उस ने पल भर में फ़राग़त का रिबन काट दिया
मैं तो बस कहता रहा कहता रहा – काटूँ हूँ
सिर्फ़ होता जो गुनहगार तो बच भी जाता
मैं तो कज़दार भी हूँ – सख़्त सज़ा काटूँ हूँ
क्या पता कौन से परबत पे दरस हो उस का
बस इसी धुन में शबोरोज़ हवा काटूँ हूँ
एक भी ज़ख्म छुपाया न गया तुम से ‘नवीन’
हार कर अपने कलेज़े की रिदा काटूँ हूँ
नवीन सी चतुर्वेदी
बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22

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