टूट कें काँच की रकाबी से - नवीन

टूट कें काँच की रकाबी से
हम बिखर ही गए सराबी से
नेह के बिन सनेह की बतियाँ
ये दरस तौ हैं बस नवाबी से
हक्क तजबे कों नेंकु राजी नाँय
गम के तेवर हैं इनकिलाबी से
बैद, कोऊ तौ औसधी बतलाउ
घाव, गहराए हैं खराबी से
राख हियरे में खाक अँखियन में
अब कपोल’उ कहाँ गुलाबी से
प्रश्न बन कें उभर न पाये हम
बस्स, बन-बन, बने – जवाबी से
हमरे अँचरा में आए हैं इलजाम
बिन परिश्रम की कामयाबी से
ब्रज-गजल के प्रयास अपने लिएँ
सच कहें तौ हैं पेचताबी से
बस्स बदनौ* है, कच्छ करनों नाँय
हौ ‘नवीन’ आप हू किताबी से

नवीन सी चतुर्वेदी

बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मख़बून
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
2122 1212 22

ब्रज-गजल 





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