6 अगस्त 2016

सारा जीवन दे कर कुछ एक लम्हे माँगे थे - नवीन

सारा जीवन दे कर कुछ एक लम्हे माँगे थे
दुनिया तुझ से हम ने कौन ख़ज़ाने माँगे थे
थके-बदन की आह कहाँ सुनती है ये दुनिया
इसीलिये तलुवों ने कुछ अङ्गारे माँगे थे
एक और गहरी नींद हमारा मरकज़ थी ही नहीं
नींद उचट पाये इस ख़ातिर सपने माँगे थे
सच तो ये है हम ही थाम सके न पुराने पेड़
आँधी ने तो पेड़ नहीं बस पत्ते माँगे थे
हैवानो कुछ रह्म करो खुल कर जीने दो हमें
भूल गये क्या क्यूँ चेहरों ने परदे माँगे थे
ऐसा लगा जैसे गोदी में बैठ गया वो ख़ुद
किसन-कन्हैया से जब हम ने बच्चे माँगे थे
रद्दी जैसा ही कुछ-कुछ दे पाया ‘नवीन’ हमें
हमने जब उस से उस के मज़मूये माँगे थे
नवीन सी चतुर्वेदी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें