रेत के कणों को समेटने
में एक उम्र गुज़र गई और जिन चमकीले कणों से मैंने अपने
हाथ सजाये वे तो बड़े
ही निष्ठुर निकले। चमकते हुए मेरी हथेली
से न जाने कहाँ चले गए? मैं लहरों के बीच
डूबती-उतराती सब जगह जाकर देख आई परन्तु मेरे हाथ कुछ न लगा। भीगे कपड़ों में गीले
आँसुओं से तर-ब-तर मैं किसी तरह बाहर आ गई। दूर
कहीं सूरज की लालिमा आधे आकाश को अपने आगोश में लेने
को बेताब थी। सफ़ेद बादलों का एक उजला टुकड़ा उसके आगोश से फिसला चला जा रहा था, मानों वह इतनी जल्दी
नींद की गोद में नहीं जाना चाहता हो। देखते ही देखते लालिमा ने अपने हाथ फैलाये और
उस छोटे से नटखट बादल के टुकड़े को जो बहुत शैतानी से बड़ी देर से लुका छुपी खेल रहा था , अपने पास सटा लिया। इतने पास, कि
नन्हा सा बादल इतना विराट सानिध्य पाकर एक कोने में दुबक गया। डूबते
सूरज ने गर्व भरी मुस्कान से चारों ओर देखा कि हर शय
सिन्दूरी हो चुकी थी मानों अब यह सोने की बेला का सङ्केत था।
सूरज को पता नहीं क्या हुआ कि उसने अचानक ही नदी के
दूसरी और डुबकी लगा ली। मैं जो किनारे पर बैठी कुदरत
के इस तमाशे को बहुत गौर से देख रही थी अचानक समझ ही
नहीं पाई कि इतना विशाल सूरज जिसके बगैर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है वो
भी जल समाधि ले सकता हैं। मैंने देखा कि मैं भी नदी की
तेज धारा में धीरे-धीरे आगे बढ़ रही हूँ, परन्तु अचानक सँभल नहीं पाती और सन्तुलन खोकर पानी में गिर पड़ती हूँ। मैं
डूबते हुए सोच रही हूँ कि मुझे
तो तैरना भी नहीं आता परन्तु जैसे ही डूबने
लगती हूँ और मेरा दम घुटने लगता हैं तो अचानक मेरी आँख हड़बड़ाकर खुल गई और माथे का पसीना पोंछते ही मैंने
सोचा कि आज जीवन में पहली बार इस बात को
इतनी गहराई से समझ पाई कि क्यों मैं हजारों सूर्योदय देखने के बाद भी समझ
नहीं पाई कि सूरज डूबता भी है और जब डूबता हैं तो उसको रात में कोई
नहीं याद करता ईदुनिया नींद के आगोश में जाने से पहले
इस बात पर खुश होती है कि चाँद अपनी सफ़ेद खूबसूरत और नाजुक सी चाँदनी लेकर सितारों
के साथ आएगा और सपनों की सुहानी दुनिया में ले जाएगा जहाँ उन्हें दिन भर के तमाम
दर्द , तकलीफों
और कष्टों से कुछ समय के मुक्ति मिल जायेगी। क्या कभी किसी ने ये नहीं
सोचा कि जो सूरज अस्त हो गया है अगर वो कभी ना निकले तो क्या होगा ....पर इन सब बातों को सोचने की कहाँ, किसके पास फुर्सत हैं ,मेरे
पास भी कहाँ थी ...पति ससुर और सास की
सेवा करते करते कब मेरे जीवन के बारह वर्ष बीत गए , पता ही नहीं चला। कोल्हू का
बैल भी इतना क्या घूमता होगा जितना मेरी सास ने मुझे वैध और हकीमों के दरवाज़ों पर
घुमाया हैईकितनी बार मैंने दबे स्वर में कहना
चाहा कि एक बार अपने लड़के
का तो डाक्टरी चेकअप करवा लो पर बात जुबान से निकलने से पहले ही जैसे किसी ने मेरा तालू नोंचकर फ़ेंक दिया हो। और यही सब सोचते
हुए मैं बरामदे में बैठे अपने ससुर के पास उन्हें चाय
देने गई जो अर्ध विशिप्त थे और सब उनको पागल पागल कहकर
चिढ़ाते थे। मैंने मोहल्ले
की औरतों से सुना था कि मेरी सास ने ही जमीन जायजाद
पाने के लालच में अपने पति को कोई जड़ी बूटी खिला कर
उनका दिमाग ख़राब कर दिया था और उसके बाद वो राजरानी की तरह सब पर हुकुम चलाती
रहती थी। मैं जानती थी कि ससुर
से कहने का कोई फायदा नहीं होगा पता नही वो मेरी बात समझेंगे भी या नहीं और सबसे
बड़ा संकोच मुझे अपनी भावनाए उनके सामने बताने से हो रहा था पर पति के सामने तो
उसका मुहं खुल ही नहीं
सकता था और अचानक मेरा ध्यान अपने जले हुए निशानों पर गया जो मेरे पति ने लोहे का
चिमटा गर्म करके मेरे ऊपर दागा था। मेरी सास को किसी
ने बता दिया था कि मुझ पर किसी ने टोना टोटका करवा दिया है जिसके कारण मेरे बच्चे
नहीं हो रहे है और हर मंगलवार मुझे अगर गर्म लोहे के चिमटे से मेरा पति दागेगा तो
बहुत ही जल्दी उनके वंश को बढ़ाने वाला उनकी गोद में किलकारियाँ मारेगा। आज भी सोच
कर मैं थर्रा जाती हूँ कि मवेशियों के भी जब गर्म
सरियाँ दागा जाता हैं तो उन्हें भी वहाँ से भागने की आज़ादी होती है और कुछ लोग उन्हें पकड़कर रखते है मैंने
तो अपने गाँव में देखा भी था कि कोई नशीली वस्तु खिलाने के बाद वो चुपचाप खड़े अपने नर्म मुलायम शरीर से अपनी खाल नुचवाया
करते थे पर मैं तो उन सभी जानवरों से भी बदतर हूँ ,क्योंकि मेरी सास दरवाजे पर
बैठ जाती थी और तेज आवाज़ में भजन लगा देती और
ये देखकर चौके के अन्दर खड़ा राच्छस जैसा
मेरा पति मुझे धमकी देते हुए कहता कि अगर हिली या भागी तो मिटटी का तेल डालकर ऐसा जलाऊंगा कि तू पूस सा धू धू
जलने लगेगी। जब चिमटा आग में गर्म हो रहा होता तो मन ही मन मैं सारे देवी देवताओं
को पुकारती पर कभी मुझे कोई भी इस नरक से निकालने के लिए कभी ना आता। चिमटे
के गर्म होकर लाल होने पर मेरा पति मुझसे कहता कि
हाथ आगे कर ...और मैं फूट फूटकर रोती हुई अपनी पत्ते
से थरथराती हुई देह के साथ हाथ आगे कर देती पर इसके बाद क्या होता मुझे कुछ पता
नहीं चल पाता क्योंकि मैं चीख के साथ दर्द के मारे
बेहोश हो जाती और ये सुनकर मेरी सास बाहर बैठी गप्प लड़ाती औरतों को प्रसाद बांटना शुरू कर देती। मैंने
अपनी सास के सामने ही कई बार जान देने की कोशिश की पर हमेशा
उन्होंने जी तोड़ कोशिश हर बार मुझे बचा लिया। एक दिन मैंने चीखते हुए पूछा -
क्यों नहीं मर जाने देते हो मुझे तुम लोग। अगर मैं जानवरों से भी गई बीती हूँ
तो मुझे तिल तिल करके क्यों मार रहे हो ?" अरे
...ऐसे कैसे मर जाने दे तुझे ?पता हैं आजकल काम वाली बाइयों के कितने नखरे हैं कितनी मोटी
पगार लेती है, तब भी पूरा काम नहीं करती। फिर कुछ सोचते हुए बोली तू भी उनकी तरह
चोरी छुपे चौके में खाती पीती जरुर होगी वरना इतनी मुस्तंडी
कैसे होती जा रही हैं जब अपने बाप के घर से आई थी तब तो छिपकली जैसी
दुबली पतली थी फिर अपने निठल्ले बेटे की तरफ मुहँ करके मेरी ओर तिरछी नज़रे करके
देखते हुए बोली-" सुन , तू मुझे नहीं कल नहीं बल्कि आज ही एक जाली वाली अलमारी
लाकर दे दे ताकि दूध और दही मैं जरा ताले में रखना शुरू कर दू। क्या ज़माना आ गया
हैं मुझ बूढी की हड्डियों में तो सिर्फ दो लीटर दूध ही पहुँच रहा हैं और बाकी पता
नहीं ये कितना गटक जाती होगी" अपमान और शर्म से मेरी आँखों से आँसूं बहते हुए मेरे गाल तक आ गए और मैं जान ही नहीं पाई । मैंने
अपने पति की ओर देखा कि शायद वो कहे कि जब घर में ही दो लीटर दूध आता हैं और वो एक
कप चाय तक को तरस जाती हैं तो दूध पीने का तो सपने में
भी नहीं सोच सकती पर कुछ भी कहने और सुनने का कोई अर्थ नहीं था। ये तो एक ऐसी काल
कोठरी थी जिसमे उसे आखिरी साँस तक रहना था और मरने के बाद ही अगर कही सुख होता होगा तो उसकी अनुभूति उसे तभी
मिलेगी। तभी बाहर से भड़ाक की आवाज़ आई। सास और पति के
साथ मैं भी हडबडाकर आँगन की ओर भागी। देखा तो मेरे ससुर
जमीन पर पड़े कराह रहे थे और उनके सर पर एक बड़ा सा गुमड निकल आया था ईमैं घबराकर उन्हें उठाने के लिए
भागी पर अकेले उन्हें नहीं उठा पाने के कारण मदद के
लिए अपनी सास और बेटे की तरफ देखा। पति में शायद बाबूजी के कुछ संस्कार आ गए थे
इसलिए वो उसकी ओर बढ़ा पर माँ ने तुरंत उसका हाथ पकड़ लिया और पान चबाती हुई बोली-"अन्दर चल मेरे
साथ, मैं
समझी थी कि बच्चे कही आँगन में पड़ी चारपाई लेकर तो नहीं भाग रहे है। ये गिरना
पड़ना तो सब चलता ही रहता है। " और ये कहकर वो अपने उस दब्बू और कायर बेटे का
हाथ पकड़ कर अन्दर की ओर चली गई। मेरा रोम रोम
गुस्से के मारे जल उठा पर मैं कर ही क्या सकती थी
ईमैंने बाबूजी की ओर देखा तो उनकी आँखों से आँसूं बह
रहे थे। मैंने अपनी रुलाई रोकते हुए उनके आँसूं पोंछे और
उन्ही को हिम्मत देते हुए किसी तरह से ले जाकर उनके बिस्तर पर लेटाया। करीब एक
महिना लगा बाबूजी को उस दर्द से उबरने में ...शायद उनके माथे की चोट तो ठीक हो गई
थी पर जब वो जमीन पर टूटी हुई सुराही के पानी में गीले पड़े हुए थे और उनकी पत्नी
और बेटा घ्रणा से मुहं फेरकर चल
दिए थे, वो घाव तो उनकी म्रत्यु तक
हरा ही रहेगा । मैंने तो लाचार जमीन पर गिरे
बाबूजी की आँखों में उस वक़्त भी डर साफ़ देखा था जब
माँ उन्हें घूर रही थी। वो बेचारे कोहनी से रिसते हुए
खून को छुपाने की असफल कोशिश कर रहे थे क्योंकि माँ का बार बार सफ़ेद
चमकते हुए संगमरमर की फर्श की ओर देखना इस बात का
संकेत था कि उनके खून से फर्श लाल हो रही है। पर मुझे और बाबूजी दोनों को ही सर्कस
के जानवर बना दिया गया था जो अपने रिंग मास्टर के इशारे पर ही काम करता
हैं चाहे रो कर करे या फिर नकली मुस्कान होंठो पर चिपकाकर ईखैर अब
दिन थे तो बीतने ही थे। कभी कभी सोचती हूँ कि विधाता
भी बहुत बड़ा जादूगर हैं उसने सबके दिमाग में ये भ्रम बैठा रखा हैं कि प्रत्येक
मनुष्य अमर है इसलिए आदमी कब्रिस्तान से लौटते हुए भी अपने बाप की जमीन , जायदाद
और बेंक अकाउंट के बारे में चिंता करता आता हैं वरना अपने ही हाथ से अपने जन्मदाता
का सर फोड़ने के बाद उसको आग के हवाले कर कोई पैसे के बारे मैं सोच भी कैसे सकता
हैं। पर यही भूल भुलैया ही तो सबको बहला रही हैं वरना मेरे ससुर के साथ जो
मेरी सास कर रही है वो सपने में भी
कभी न करती।
जब भी मैं जरा सी भी गलती करती तो मेरी सास तुरंत मेरे पति की दूसरी
शादी की बात करती पर मेरे दिल में ख़ुशी की यह उम्मीद ज्यादा देर तक नहीं
रहती क्योंकि मेरी सास की दुष्टता के
किस्से दूर दूर तक मशहूर हो चुके थे और लड़की तो क्या कोई कानी चिरैया तक इस घर में
ब्याहने को तैयार नहीं था। मेरा इस अनंत ओर छोर वाले संसार में ईश्वर के अलावा देखने और सुनने वाला कोई नहीं था इसलिए मैं घंटो
अपने घर के मंदिर में बैठकर रोती रहती थी। पर उस दिन मेरे सब्र की हद पार हो गई जब मेरी सास ने घर में एक अनुष्ठान रखा और
जिसमें किसी साधू को बुलवाया ईजटाधारी साधू के तन पर ढेर सारी भभूत और साधू की
आँखों मैं वासना के लाल डोरे देखते ही में समझ गई थी कि अब मेरे बाँझ होने से भी ज्यादा कुछ अनिष्ट इस घर में होने जा रहा हैं।
उस की लाल लाल गांजे और अफीम के नशे से लाल हुई भयानक
आँखें मुझे अन्दर तक भेद रही थी। डर के मारे में सिहर उठी और मेरे रोएँ खड़े हो गए।
मैं कुछ कहू इससे पहले ही मेरी सास बोली -" जा इनको कमरे में ले जा और तेरी
सूनी गोद को भरने के लिए एक पूजा रखी हैं वरना तुझ
जैसी बाँझ के मनहूस क़दमों से ही मेरा पति पागल हो गया। मैंने आँसूं भरी नज़रों से
अपने ससुर की ओर देखा जो बड़ी ही बेबसी से मुझे देख रहे थे। इतना घिनौना इलज़ाम भी
ये औरत मुझ पर लगा सकती हैं , इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी ।
पर अभी बहुत कुछ ऐसा होना बाकी था जो कल्पना से परे था। सास के पीछे पीछे दुम हिलाता उनका पालतू बेटा
भी सर झुकाकर खड़ा हो गया। कमरे में पूजा की कोई तैयारी नहीं देखकर मैं जैसे ही बाहर जाने को हुई उस लम्बे चौड़े साधू ने मेरा रास्ता रोक लिया। मैं कुछ
कहू इससे पहले मेरे सास कमरे के बहार जाते हुए बोली-"मैं
जरा भजन चलाकर आँगन में बैठने जा रही हूँ। आ जाउंगी दोपहर तक वापस। तब तक जैसा साधू बाबा कहे वैसा ही करना , आखिर तुझ जैसी निपूती को लेकर
कब तक अपने घर के अन्न से भरे बोरे ठुसाउंगी ।
मैंने आशा भरी नज़रों से अपने पति की ओर देखा जो मेरी नज़रों का सामना
ना करते हुए मेरी सास के पीछे जाकर छुप गया। मैंने मन ही मन अपने कायर पति को
धिक्कारते हुए सोचा कि किस मनहूस घडी में पंडित के कहने
पर इस लचर से आदमी ने मेरी रक्षा करने के वचन दिए थे। तभी मेरी सास मेरी तरफ इशारा
करते हुए उस साधू से बोली-" अरे,पूरा मोहल्ला जानता है कि मेरी
बहु सारे जहाँ में कटी पतंग सी डोलती रहती है। कभी इसकी छत
पर तो कभी उसकी देहलीज पर। ये तो आपके सामने
बड़ी सती सावित्री बनने का ढोंग कर रही है। इसके बाल पकड़ कर खींचों और इसे कमरे के
अन्दर बंद कर दो। '
अपने ऊपर इतना गन्दा इल्ज़ाम सुनकर मैं फूट फूट कर रोने लगी ईसारा
मोहल्ला जानता था कि मैंने कभी घर के बाहर पैर भी नहीं निकाला था। जब मैं इन लोगों
की मार खाकर रोती और चिल्लाती थी तब भी अपने आपको बचाने के लिए मैंने कभी किसी
कंधे का सहारा नहीं लिया। साधू ये सुनकर बड़ी ही ध्रष्टता
से मुस्कुराया और अपनी भारी आवाज़ में बोला -" इसमें इस बेचारी
की गलती नहीं हैं इसकी माँ भी ऐसी ही होगी जिसने सारे जीवन गुलछर्रे उड़ाए होगे तो लड़की को कहाँ सँभालने की फुर्सत
मिलती "
मेरा सर्वांग गुस्से से तिलमिला उठा और मेरी आखों के आगे मेरी विधवा
माँ का उदास चेहरा आ गया जिन्होंने विवाह के मात्र दो वर्ष बाद ही अपने अपने पति
को खो देने के बाद चिलचिलाती धूप और बरसते पानी में घर-घर जाकर पापड़ और बड़ी
बेचकर हम भाई बहन को इतना शिक्षित करके विवाह कराया ।
मुझे अपने आप पर शर्म होने लगी। एक तरफ मेरी अनपढ़
माँ थी जिसने अपने नाजुक कन्धों पर घर की सारी जिम्मेदारियों का बोझ
अकेले दम पर सारे समाज को मुहँ तोड़ जवाब देते हुए निभाया और दूसरी तरफ मैं हूँ
एमए उत्तीर्ण करने के बाद भी इस मरियल से आदमी से रोज पिट रही हूँ , जिसमे ना ईमान हैं और ना धर्म
। इस क्रूर आदमी से दिन रात दया की
भीख माँग रही हूँ । तभी मेरी तन्द्रा अपनी सास की कर्कश आवाज़ से टूटी जो अपनी
झुकी हुई कमर को लाठी के सहारे पकड़े हुए खड़ी थी। वो मेरी माँ के चरित्र पर लांछन
लगाते हुए जोर जोर से चीख रही थी। वो जितने अपशब्द मेरी माँ को कह रही
थी उतना ही भावनात्मक साहस पता नहीं मेरे अन्दर कहाँ
से आ रहा था। और जैसे ही साधू मेरी सास की रजामंदी पाकर मेरी ओर बढ़ा
मैंने बिजली की गति से सास के हाथ से डंडा लिया जिससे वो हड़बड़ाकर
नीचे गिर पड़ी और ताबड़तोड़ मैंने उस साधू पर उसी डंडे से प्रहार करना शुरू कर दिया।
बारह वर्षो का दुःख और दर्द जैसे लावा बनकर मेरे अन्दर बह रहा था और आज वो पूरी
तरह से इन पापियों को अपने साथ बहा ले जाना चाहता था। जब साधू लहुलुहान हो गया तो
मैंने जलती हुई नज़रों से अपने पति और सास की ओर देखा जो डर के मारे थर थर काँप रहे थे।
मैं कुछ कहूँ , इससे
पहले ही मेरी सास बोली-" तू ही तो मेरी इकलौती बहू हैं, क्या अपनी माँ पर तू हाथ
उठाएगी। ये ले आज से ये सारा घर तू ही संभालेगी और ये कहते हुए उन्होंने चाभियों
का गुच्छा कांपते हाथों से मेरे हाथ में थमा दिया ।
अपने हाथों में पड़े फफोलो ओर नीले दागों को देखकर अन्दर से लगा की ये
दोनों भी मेरी मार के पूरे हकदार हैं पर बचपन में ही माँ के दिए हुए संस्कार एक
बार फिर आगे आ गए और मैंने ईश्वर से ही उन्हेंदंड देने को कहा क्योंकि उसका किया
हुआ न्याय बिलकुल सही और सटीक होगा। मैंने तिरछी नज़रों से अपने पति की ओर देखा जो
हमेशा की तरह एक कोने में दुबका खड़ा था। मैं उन कायरों को उस ढोंगी साधू के साथ
छोड़कर एक फीकी मुस्कान के साथ चाभियों का गुच्छा घुमाती हुई चल दी अपने ससुर को
किसी अच्छे डॉक्टर के पास ले जाने
के लिए.....
मञ्जरी शुक्ल , इलाहाबाद
9616797138
दुनिया कई कहानियों से भरी पड़ी है...कहीं न कहीं का सच होगा ही यह , दहलाने वाली कहानी ...कहानीकार की सशक्त अभिव्यक्ति को बधाई !!
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