1 जून 2014

सोनेट - तुफ़ैल चतुर्वेदी

सोनेट मूलतः योरोपीय शायरी की अच्छी-ख़ासी मुश्किल क़िस्म है. 14 मिसरों की इस काव्य विधा के नियम ख़ासे पेचीदा और कठिन हैं। ये विधा इतनी कठिन है कि विश्व साहित्य में सोनेट कह सकने वाले 50 नाम भी दिखायी नहीं देते। माना जाता है कि ये विधा इटली में जन्मी और वहां से फैली। एस्पेंसर, शेक्सपियर, पिटरार्क, टामस हार्डी, हौपकिन्स, जॉन मैसफ़ील्ड, ब्रुक, जी.एम. हौकिंसन, मैथ्यू और्नल्ड, वर्ड्सवर्थ, कूलरिज, शैली, कीट्स आदि इसके प्रमुख नाम हैं। हमारे यहां पहले सोनेटनिगार अज़ीमुद्दीन अहमद हुए हैं। इनका पहला सोनेट 1903 में सामने आया। 1928 में अख्तर जुनागढ़ी के सोनेट का संकलन लम्हाते-अख्तर के नाम से छपा। 1930 में नून. मीम. राशिद का सोनेट का संकलन ज़िन्दगी सामने आया। इस विधा के प्रमुख रचनाकारों में डॉ. हनीफ़ कैफ़ी, डॉ. नाज़िम जाफ़री, डॉ. अज़ीज़ तमन्नाई, आज़ाद गुलाटी, ख़लीलुर्रहमान राज़, नादिम बलखी, मुहम्मद इरफ़ान, निसार अयोलवी आदि हुए हैं।

सोनेट मूलतः तीन प्रकार के हैं मगर हमारे लोगों ने इसके सिवा भी उठा-पटक की है और उर्दू सोनेट की नयी शक्लें भी बनायी हैं।

1:- इटालियन या पिटरार्कन

2:-शेक्सपेरियन

3:- एस्पेंसेरियन

पिटरार्कन:- ये सोनेट की बुनयादी शक्ल है। इसके जनक इटली के शायर पिटरार्क हैं। इस सोनेट में 8 तथा 6 मिसरों के दो क़ितए होते हैं। पहले 8 मिसरों के क़ितए में 1,4,5 तथा 8वां मिसरा हमक़ाफ़िया होता है और 2,3,6 तथा 7वां मिसरा हमक़ाफ़िया होता है। शेष 6 मिसरों का क़ितआ दो तरह से शक्ल पाता है। 9,11,13वां मिसरा और 10,12 और 14वां मिसरा हमक़ाफ़िया होता है। दूसरी शक्ल में 9वां तथा 12वां, 10वां तथा 13वां और 11वां तथा 14वां मिसरा हमक़ाफ़िया होता है

शेक्सपेरियन सोनेट:- सोनेट की यह शैली मूलतः अर्ल ऑफ़ सरे की ईजाद है मगर शेक्सपियर के अधिक प्रसिद्ध हो जाने के कारण उनके नाम से पुकारी जाती है। ये सोनेट दो की जगह चार हिस्सों में बंटा होता है। चार-चार मिसरों के तीन बंद और अंत में बैत सोनेट का निचोड़ पेश करता है

एस्पेंसेरियन सोनेट:- इस शैली का सोनेट शेक्सपेरियन सोनेट की ही तरह हरकत करता है। उसी की तरह इसके हर बंद में पहला और तीसरा मिसरा तथा दूसरा और चौथा मिसरा हमक़ाफ़िया होता है। अंतर इतना है कि हर बंद के चौथे मिसरे का क़ाफ़िया अगले बंद के पहले मिसरे में अपना लिया जाता है

                 पिटरार्कन सोनेट

कुछ नहीं ऐ दिले-बीमार अभी कुछ भी नहीं
कितनी तकलीफ़ अभी सीना-ए-इफ़लास में है
सोज़िशे-ज़ख्मे-जिगर शिद्दते-अहसास में है
दिल धड़कने की ये रफ़्तार अभी कुछ भी नहीं
इक ख़ला है पसे-दीवार अभी कुछ भी नहीं
ज़िन्दगी दूर बहुत दूर किसी आस में है
इक तअस्सुब की महक फूलों की बू-बास में है
क़िस्सा-ए-गेसु-ए-रुख़सार अभी कुछ भी नहीं

इसी उमीद पे रौशन हैं ये पलकों के चिराग़
इसी उमीद पे ज़िंदा हैं कि आयेगी सहर
मिल ही जायेगा कभी मंज़िले-हस्ती का सुराग़
हमने माना कि हर-इक अपना मुख़ालिफ़ है मगर
मरहमे-वक़्त से मिट जायेगा सीने का ये दाग़
और कुछ देर ठहर और अभी और ठहर ………………….डॉ. नाज़िम जाफ़री


ऐ मिरे चांद, मिरी आंख के तारे, मिरे लाल
ऐ मिरे घर के उजाले मिरे गुलशन की बहार
तेरे क़दमों पे हर इक नेमते-कौनैन निसार
हो सितारों की बुलंदी पे तिरा इस्तक़बाल
तेरी मंज़िल बने इन्सान की मेराजे-कमाल
तेरी महफ़िल में हो दोशीज़ा-ए-गेती का सिंगार
तेरा मक़सूद हो लैला-ए-तमददुन का निखार
तेरा मशहूद हो महबूबा-ए-फ़ितरत का जमाल

किसने देखा है मगर आह रुख़े-मुस्तक़बिल
कब धुआं बन के बिखर जाये ये नैरंगे-मजाज़
रंगे-महफ़िल ही उलट दे न बिसाते-महफ़िल
शिद्दते-नग़मा ही बन जाय न वीरानी-ए-दिल
औजे-फ़र्दा के तसव्वुर से लरज़ जाता है दिल
क्या दुआ दूँ मिरे बच्चे हो तिरी उम्र दराज़ ………………..डॉ. हनीफ़ कैफ़ी

हमें न चाहो कि हम बदनसीब हैं लोगो
हमारे चाहने वाले जिया नहीं करते
ये उनसे पूछो जो हमसे क़रीब हैं लोगो
ख़ुशी के दिन कभी हमसे वफ़ा नहीं करते

बुझी-बुझी सी तबीयत, उड़ा-उड़ा सा दिमाग़
हमारे सीना-ए-इफ़लास में दिले-महरूम
तलाश करने से पाता नहीं है अपना सुराग़
मचल रहा है मगर मुद्दआ नहीं मालूम

हमारी ज़ीस्त थी सादा वरक़ प क्या करते
सियाही वक़्त ने उलटी थी इस सलीक़े से
किसे हम अपनी हक़ीक़त से आशना करते
कि नक़्श कोई न उभरा किसी तरीक़े से
वो तिश्नगी है कि प्यासे ख़याल आते हैं
हमारे ख़ाबों में दरिया भी सूख जाते हैं ………………….डॉ. नाज़िम जाफ़री


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