1 जून 2014

काम आना हो तभी काम नहीं आते हैं - नवीन

काम आना हो तभी काम नहीं आते हैं
धूप के पाँव दिसम्बर में उखड़ जाते हैं

धूल-मिट्टी की तरह हम भी कोई ख़ास नहीं
बस, हवा-पानी की सुहबत में सँवर जाते हैं

वो जो कुछ भी नहीं उस को तो लुटाते हैं सब
और जो सब-कुछ है, उसे बाँट नहीं पाते हैं

सारा दिन सुस्त पड़ी रहती है ग़म की हिरनी
शाम ढलते ही मगर पङ्ख निकल आते हैं

शह्र थोड़े ही बदलते हैं किसी का चेहरा
आदमी ख़ुद ही यहाँ आ के बदल जाते हैं


नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
2122 1122 1122 22


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