1 जून 2014

एक काफिया ब्रज-गजल [ग्रामीण] - नवीन

एक काफिया ब्रज-गजल [ग्रामीण]

कुहासौ छँट गयौ और उजीतौ ह्वै गयौ ऐ
गगनचर चल गगन कूँ सबेरौ ह्वै गयौ ऐ

हतो बौ इक जमानौ कह्यौ कर्त्वो जमानौ
चलौ जमना किनारें - सबेरौ ह्वै गयौ ऐ

बौ रातन की पढ़ाई और अम्मा की हिदायत
अरे तनि सोय लै रे - सबेरौ ह्वै गयौ ऐ

अगल-बगलन छतन सूँ कहाँ सुनिबौ मिलै अब
कि अब जामन दै बैरी - सबेरौ ह्वै गयौ ऐ

कहूँ जामन की जल्दी, कहूँ जा बात कौ गम
निसा उतरी ऊ नाँय और सबेरौ ह्वै गयौ ऐ

न कुकड़ूँ-कूँ भई और न जल झरत्वै हबा सूँ
तौ फिर हम कैसें मानें - सबेरौ ह्वै गयौ ऐ

न जानें चौं बौ औघड़ हमन पै पिल पर्यौ’तो
कह्यौ जैसें ई बा सूँ - सबेरौ ह्वै गयौ ऐ


भाषा-धर्म और कथ्य के अधिकतम निकट रहते हुये भावार्थ ग़ज़ल


कुहासा छँट गया और उजाला हो गया है
गगनचर चल गगन को सवेरा हो गया है

वो भी था एक ज़माना, कि कहता था ज़माना
चलो यमुना किनारे - सवेरा हो गया है

वो रातों की पढ़ाई और अम्मा की हिदायत
ज़रा कुछ देर सो ले - सवेरा हो गया है

बगल वाली छतों से कहाँ सुनना मिले अब
कि अब जाने दे बैरी - सवेरा हो गया है

कहीं जाने की जल्दी, कहीं इस बात का ग़म
शब उतरी भी नहीं और सवेरा हो गया है

न कुकड़ूँ-कूँ हुई और न जल झरता [है] हवा से
तो फिर हम कैसे मानें सवेरा हो गया है

न जाने क्यूँ वो औघड़ बिफर उठ्ठा था हम पर
कहा जैसे ही उस से - सवेरा हो गया है



नवीन सी. चतुर्वेदी

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