1 जून 2014

2 ग़ज़लें - गोविन्द गुलशन



धूप के पेड़ पर कैसे शबनम उगे,
बस यही सोच कर सब परेशान हैं
मेरे आँगन में क्या आज मोती झरे,
लोग उलझन में हैं और हैरान हैं

तुमसे नज़रें मिलीं ,दिल तुम्हारा हुआ,
धड़कनें छिन गईं तुम बिछड़ भी गए
आँखें पथरा गईं,जिस्म मिट्टी हुआ
अब तो बुत की तरह हम भी बेजान हैं

डूब जाओगे तुम ,डूब जाउँगा मैं
और उबरने न देगी नदी रेत की
तुम भी वाकि़फ़ नहीं मैं भी हूँ बेख़बर,
प्यार की नाव में कितने तूफ़ान हैं

डूब जाता ये दिल, टूट जाता ये दिल,
शुक्र है ऐसा होने से पहले ही खु़द
दिल को समझा लिया और तसल्ली ये दी
अश्क आँखों में कुछ पल के मेहमान हैं

ज़ख़्म हमको मिले,दर्द हमको मिले
और ये रुस्वाइयाँ जो मिलीं सो अलग
बोझ दिल पर ज़ियादा न अब डालिए
आपके और भी कितने एहसान हैं



दिल में ये एक डर है बराबर बना हुआ
मिट्टी में मिल न जाए कहीं घर बना हुआ

इक ’लफ़्ज़’ बेवफ़ा कहा उसने फिर उसके बाद
मैं उसको देखता रहा पत्थर बना हुआ

जब आँसुओं में बह गए यादों के सारे नक्श 
आँखों में कैसे रह गया मंज़र बना हुआ

लहरो! बताओ तुमने उसे क्यूँ मिटा दिया
इक ख़्वाब का महल था यहाँ पर बना हुआ

वो क्या था और तुमने उसे क्या बना दिया
इतरा रहा है क़तरा समंदर बना हुआ

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