1 जून 2014

व्यंग्य - अपने-अपने गौरव द्वीप! - नीरज बधवार



बुक स्टॉल पर किताबें पलटते हुए अचानक मेरी नज़र एक मैगज़ीन पर पड़ती है। ऊपर लिखा है, ‘गीत-ग़ज़लों की सर्वश्रेष्ठ त्रैमासिक पत्रिका’। ‘सर्वश्रेष्ठ त्रैमासिक पत्रिका’ये बात मेरा ध्यान खींचती हैं। स्वमाल्यार्पण का ये अंदाज़ मुझे पसंद आता है। मैं सोचने लगता हूं कि पहले तो बाज़ार में गीत-ग़ज़लों की पत्रिकाएं हैं ही कितनीउनमें भी कितनी त्रैमासिक हैंबावजूद इसकेप्रकाशक ने घोषणा कर दी कि उसकी पत्रिका ‘सर्वश्रेष्ठ’ है। अपने मां-बाप की इकलौती औलाद होने पर आप ये दावा तो कर ही सकते हैं कि आप उनकी सबसे प्रिय संतान हैं! जीने के लिए अगर वाकई किसी सहारे की ज़रूरत है तो कौन कहता है कि ग़लतफ़हमी सहारा नहीं बन सकती। गौरवपूर्ण जीवन ही अगर सफल जीवन हैतो उस गौरव की तलाश भी तो व्यक्ति या संस्था को खुद ही करनी होती है।

दैनिक अख़बारों में तो ये स्थिति और भी ज़्यादा रोचक है। एक लिखता हैभारत का सबसे बड़ा समाचार-पत्र समूह। दूसरा कहता हैभारत का सबसे तेज़ी से बढ़ता अख़बार। तीसरा कहता हैसबसे अधिक संस्करणों वाला अख़बार। और जो अख़बार आकारतेज़ी और संस्करण की ये लड़ाई नहीं लड़ पाते वो इलाकाई धौंस पर उतर आते हैं। ‘हरियाणा का नम्बर वन अख़बार’ या ‘पंजाब का नम्बर दो अख़बार’। एक ने तो हद कर दी। उस पर लिखा आता है-फलां-फलां राज्य का ‘सबसे विश्वसनीय अख़बार’। अब आप नाप लीजिए विश्वसनीयताजैसे भी नाप सकते हैं। कई बार तो स्थिति और ज़्यादा मज़ेदार हो जाती है जब एक ही इलाके के दो अख़बार खुद को नम्बर एक लिखते हैं। मैं सोचता हूं अगर वाकई दोनों नम्बर एक हैं तो उन्हें लिखना चाहिए ‘संयुक्त रूप से नम्बर एक अख़बार’! खैरये तो बात हुई पढ़ाने वालों की। पढ़ने वालों के भी अपने गौरव हैं। मेरे एक परिचित हैंउन्हें इस बात का बहुत ग़ुमान हैं कि उनके यहां पांच अख़बार आते हैं। वो इस बात पर ही इतराते रहते हैं कि उन्होने फलां-फलां को पढ़ रखा है। प्रेमचन्द को पूरा पढ़ लेने पर इतने गौरवान्वित हैं जितना शायद खुद प्रेमचन्द वो सब लिखकर नहीं हुए होंगे। अक्सर वो जनाब कोफ्त पैदा करते हैं मगर कभी-कभी लगता है कि इनसे कितना कुछ सीखा जा सकता है। बड़े-बड़े रचनाकार बरसों की साधना के बाद भी बेचैन रहते हैं कि कुछ कालजयी नहीं लिख पाए। घंटों पढ़ने पर भी कहते हैं कि उनका अध्ययन कमज़ोर हैं। और ये जनाब घर पर पांच अख़बार आने से ही गौरवान्वित हैं! साढ़े चार सौ रूपये में इन्होंने जीवन की सार्थकता ढूंढ ली।

पढ़ना या लिखना तो फिर भी कुछ हद तक निजी उपलब्धि हो सकता हैपर मैंने तो ऐसे भी लोग देखे हैं जो जीवन भर दूसरों की महिमा ढोते हैं। एक श्रीमान अक्सर ये कहते पाए जाते हैं कि मेरे जीजाजी तो एसपी हैं। मैं सोचता हूं...परीक्षा जीजा ने पास की। पढ़ाया उनके मां-बाप ने। रिश्ता बिचौलिए ने करवाया। शादी बहन की हुई और इन्हें ये सोच रात भर नींद नहीं आती कि मेरे जीजाजी तो एसपी हैं। हर जानने वाले पर ये अपने जीजा के एसपी होने की धौंस मारते हैं। परिचितों का बस चले तो आज ही इनके जीजाजी का निलंबन करवा दें! उन्हें देखकर मुझे अक्सर लगता है कि पढ़-लिख कर कुछ बन जाने से इंसान अपने मां-बाप का ही नहींअपने साले का भी गौरव बन सकता है! सच...सफलता के कई बाप ही नहींकई साले भी होते हैं।

पद के अलावा पोस्टल एड्रेस में भी मैंने बहुतों को आत्मगौरव ढूंढते पाया है। सहारनपुर में रहने वाला शख़्स दोस्तों के बीच शान से बताता है कि उसके मामाजी दिल्ली रहते हैं। दिल्ली में रहना वाला व्यक्ति सीना ठोक के कहता है कि उसके दूर के चाचा का ग्रेटर कैलाश में बंगला है। उसके वही चाचा अपनी सोसायटी में इस बात पर इतराते हैं कि उनकी बहन का बेटा यूएस में सैटल्ड है। कभी-कभी सोचता हूं तो लगता है कि जब आत्मविश्लेषण में ईमानदारी की जगह नहीं रहती तब ‘जगह’ भी आत्गौरव बन जाती है। फिर वो भले ही दिल्ली में रहने वाले दूर के चाचा की होया फिर यूएस में सैटल्ड बहन के बेटे की!  क्या अपने इस सुदूर या शून्य में स्थित गौरव-द्वीप को अपनी सच्ची  उपलब्धियों के महाद्वीप से जोड़ देने की इच्छा नहीं होती इन महानुभावों को?

-नीरज बधवार  - फोन- 9958506724

1 टिप्पणी:

  1. वाह बहुत बढ़िया व्यंग
    सफलता के कई बाप ही नहीं साले भी होतें हैं
    बहुत खूब

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