मेरी
आँखों ने देखे थे हजारों सपने
लोकिन
उन सपनों की नहीं थी जमीन
सब
हवा में उड़ते रहते
रातों
को आकर चुपचाप
मेरी
नींद में खलल डालते।
आँखें
देख लेतीं एक ही रात में
कई-कई सपने
और
रंगीन हो जाती आँखें।
फिर
सुबह तक मिट जाता उनका वजूद
इस
जन्म और मृत्यु के बीच होती
दिन
की आहट, रोजमर्रा
का कोलाहल।
हर
सपने ने
मेरी
आँखों में आकर ली थी अंतिम साँसे
उनकी
मृत्यु पर नहीं गिरे थे आँसू
क्योंकि
उस मौन मौत के वक्त
बंद
होती थी पलकें।
रोज
मन में मरे सपनों की चिता जलती।
और
स्वप्नहंता का अपराधबोध छोड़,
आँखे
फिर ढूँढ़ लेती
एक
नया सपना।
कभी
इसी उधेड़बुन में कट जाता दिन
कि हर
सपना अनाथ था
या
फिर मेरी आँखों में आकर
हो
गया था अपूर्ण, अनाथ?
सोनी
किशोर सिंह
8108110152
शुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंरोज मन में मरे सपनों की चिता जलती।
और स्वप्नहंता का अपराधबोध छोड़,
आँखे फिर ढूँढ़ लेती
एक नया सपना।
उम्दा रचना
अद्धभूत अभिव्यक्ति
achchi kavita
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