नज़्म - ज़ियारत - अब्दुल अहद साज़




बहुत से लोग मुझ में मर चुके हैं------;
किसी की मौत को बारह बरस बीते
कुछ ऐसे हैं के तीस इक साल होने आए हैं
अब जिन की रेहलत को
इधर कुछ सान्हे ताज़ा भी हैं
हफ़्तों महीनों के

किसी की हादेसाती मौत
अचानक बेज़मीरी का नतीजा थी
बहुत से दब गए मलबे में
दीवार-ए-अना के आप ही अपनी
मरे कुछ राबेतों की ख़ुश्क साली में

कुछ ऐसे भी जिनको ज़िन्दा रखना चाहा मैंने
अपनी पलकों पर
मगर ख़ुद को जिन्होंने मेरी नज़रों से गिराकर
ख़ुदकुशी करली
बचा पाया न मैं कितनों को सारी कोशिशों पर भी
रहे बीमार मुद्दत तक मेरे बातिन के बिस्तर पर
बिलाख़िर फ़ौत हो बैठे

घरों मेंदफ़्तरों मेंमेहफिलों मेंरास्तों पर
कितने क़बरिस्तान क़ाइम हैं

मैं जिन से रोज़ ही होकर गुज़रता हूँ
ज़ियारत चलते फिरते मक़बरों की रोज़ करता हूँ
अब्दुल अहद साज़

9833710207

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