1 जून 2014

नज़्म / कवितायें - मयङ्क अवस्थी



(एक नज़्म अपनी बहन प्रीति के नाम ..)
  
मेरे हक़ में वो इक शम्म: जलती रही
रोशनी मुझकों रातों में मिलती रही

रच रहे थे अँधेरे नई साजिशें
ज़ख्मे-दिल पर नमक की हुईं बारिशें
इस कदर था शिकंजे में मैं वक्त के
खुदकुशी कर रही थीं मेरी ख्वाहिशें

उन खिज़ाओं में नरगिस महकने लगी
एक लौ जगमगा कर कसकने लगी
मेरे ख्वाबों में फिर रंग भरते हुये
आँधियों के मुकाबिल दहकने लगी

मेरे हक मे वो इक शम्म: जलती रही
रोशनी मुझको रातों में मिलती रही

इक सियाही से लिपटी थी ये रहगुज़र
उसने मुझको उजाला दिया तासहर
कुछ अँधेरे निगल ही गये थे मुझे
मैं न होता कहींवो न होती अगर

जिस्म उसका जला जाँ पिघलती रही
कर्ब अपने बदन का निगलती रही
मोम के दिल में इक कच्चा धागा भी था
तंज़ सह कर हवाओं के जलती रही

मेरे हक में वो इक शम्म: जलती रही
रोशनी मुझको रातों में मिलती रही




आस्थाओं से सदा इस भाँति यदि लिपटे रहोगे,
लघु कथाओं के कथानक की तरह सिमटे रहोगे !!

पुष्प बन अर्पित हुये तो
पददलित बन त्यज्य होगे ,
गर बनो पाषाण अविचल
पूज्य बन स्तुत्य होगे !!
संशयों के शहर में अफवाह बन जाओ नहीं तो,
अर्धसत्यों की तरह न लिखे हुये न मिटे रहोगे !!

लालसा की वेश्या को
स्वार्थ की मदिरा पिलाओ,
और मर्यादा सती को
हो सके तो भूल जाओ !!
मस्तरामो की तरह मदमस्त रहना चाहते हो ?!!
या विरागी हाथ में आध्यात्म के चिमटे रहोगे !!!

जड़ सदा ही गुम रही
तारीफ फूलों की हुई है ,
फूल कहते हैं हमारी
जड़ बड़ी ही जड़ रही है,
छन्द के उद्यान का वैभव तुम्हीं में शेष हो यदि,
मुक्त छन्दों की तरह विषबेल बन चिपटे रहोगे !!!




सृष्टि के संताप कितने हम रहे उर में छुपाये
ताप का वर्चस्व था लेकिन नही आँसू बहाये
गल न जाते थे क्षणिक सी ऊष्मा में हम समर की
हम न थे हिमशैल हम पाषाण थे

दृष्टिहीनों ने हमें अविचल कहा था जड़ कहा था
यह नहीं देखा कि हम निर्लिप्त थे स्थिर अगर थे
दे रहे थे दिशा औ आधार हम ही निम्नगा को
पर नियति के खेल हम पाषाण थे

वेदना अपनी सघन थी ऊष्मा उर में बहुत थी
हम मनुज की तुष्टियों के प्रथम पोषक भी बने थे
दिख रहे अनगढ विभव था मूर्तियों का आत्मा में
हम न थे विष बेल हम पाषाण थे


मयंक अवस्थी ( 07897716173 08765213905)

1 टिप्पणी:

  1. मयंक भैया आपको जब पढता हूँ एक अलग अनुभूति होती है हिंदी और उर्दू पर समान अधिकार से उत्कृष्ट लेखन क्या कहने

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