वो भी
एक आम आदमी ही है, इसमें
संदेह की कोई गुंजाईश नहीं दिखती. इस वजह के अलावा कि सीजन के सबसे आम फल आम को वो
खूब पसंद करता है, और भी
कुछ तथ्य उसे आम सिद्ध करते हैं. थोड़ा क्या ठीक-ठाक सा पढ़ जाने के बाद, उसने एक अदद सरकारी नौकरी भी
जुटा ली है और गरीबी रेखा को फलांग कर बड़ी ही मद्धम चाल से मध्यम वर्ग के प्रवेश
द्वार की ओर बढ़ रहा है. अपने तमाम आम भाई लोगों के साथ वो रेल-बस और फुटपाथ पर
चलता है और शाम को अपने दो कमरों के घर में बत्तीस इंच के टीवी पर देश-दुनिया के
हाल सुनकर उत्तेजित हो जाता है. फिर रोटी खाकर अपने घर-खर्चों और किश्तों-विस्तों
की चिंताएं ओढ़ कर सो जाता है. गाहे-बगाहे चाय सुड़कते हुए वो अपने दिमाग में संचित
पुराने और टीवी अखबार से अर्जित नए-ताज़े ज्ञान का कॉकटेल अपने सहयोगियों के साथ
बहसों में बाँटता है. दुनिया अपनी चाल से चलती रहती है और वो अपनी.
पर एक मायने में उसका आम होना खासा ख़ास है. आम आदमी होने के नाते
उसके ख़ास हक है. देश के हुक्मरान उस पर नज़रे-करम रखते हैं और उसी को ध्यान में रख
कर देश चलाने की नीतियाँ बनाते हैं. उसे सब साथ लेकर चलना चाहते हैं. कोई अपना हाथ
पकडाता है तो कोई खुद ही उस जैसा होने का दावा करता है. नारों-पोस्टरों में सिर्फ
उसी के कल्याण की बात होती है और उनपर जो चेहरा आम-आदमी बता कर चिपका होता है, हू-ब-हू उसी का होता है. वोट
की अपील उसी से की जाती है जो वो दे भी देता है. उसके हाथों बनाई गई सरकारें जो भी
काम करती है- भला उसी का हुआ माना जाता है. पर जाने क्यों, पांच साल बीत जाने के बाद वह
आम का आम ही रह जाता है, हाँ, मुहावरे वाली गुठलियों के दाम
कोई और ही ले जाता है.
साल-दर-साल, दशक-दर-दशक
ये आम आदमी अपनी खोल में बैठा रहता है, जो एक ब्लैक-होल सरीखा शून्य है जिसमें आख़िर उसकी ऊर्जा, प्रतिभा, आशाएं-आकांक्षाएं आपस में
पिस-घुल कर हताशा का घोल बन जाती हैं. वह उदास-सा होकर मुत्यु-सी एक सुषुप्तावस्था
में उतर जाता है. उस नीद में वह बार-बार “कुछ भी नहीं हो सकता- कुछ भी नहीं!”
बडबडाता रहता है. फिर एक दिन ये आम आदमी अंगडाई लेता उठ खड़ा होता है. आँखे मलकर
पहले इधर-उधर देखता है कि आखिर उसे किस आवाज़ ने चौंका दिया. प्रायः चौंकाने वाला
कोई आन्दोलन होता है, जिसका
एक अगुआ होता है और पांच-दस पिछ्लग्गुये होते हैं.
उसे अगुआ के पीछे एक आभा-मंडल का आभास होता है. कोई अवतार, मसीहा या तारणहार है ये तो!
उसके आगे-पीछे हज़ारों उस जैसे आम जन मुट्ठियाँ बांधे नारे लगा रहे होते हैं-
उम्मीदों से भीगे और उस मसीहे की वाणी को पीते. ये मंजर देख वो पूरी तरह जाग उठता
है और “शायद कुछ हो सकता है” बुदबुदाता उस भीड़ का हिस्सा बन कर अगुआ के पीछे चल
पड़ता है. वो शिद्दत से यकीन करने लगता है कि यही अगुआ वो शख्स है जो उसे उसके
ब्लैक-होल से बाहर ला सकता है. ये यकीन उसे अपनी दिनचर्या और चिंताओं को भूलने और
लाठियां तक खाने की शक्ति देता है. वह चलता जाता है, मगर पीछे ही बना रहता है, बढ़कर उस अगुआ से कदम नहीं मिलाता, उसके मुंह में अपनी बातें डालने की हिमाक़त नहीं करता. उसे मसीहा अपनी
अंतरात्मा में घुसा हुआ और सब कुछ जानता प्रतीत होता है.
फिर मसीहा उसके भरोसे को सीढ़ी बना कर ऊपर चढ़ जाता है, चुनाव जीतता है और उसे लक्ष्य
बना कर कल्याण के काम में लग जाता है. पर, जाने क्यों कुछ रोज़ मसीहे को निहारने के बाद वो फिर हताश होने लगता
है. आखिर वो अवसाद के अपने पुराने खोल में घुस कर बैठ जाता है- फिर से लम्बी नींद
सोने और किसी अगले मसीहे की पुकार पर जागने को. क्या
आम आदमी और मसीहे के इस अंतर्संबंध को ही लोकतंत्र कहते हैं?
कमलेश पाण्डेय- 9868380502
यही कथा है इस द्श के 12.5 करोड लोगों के जो उच्च और उच्च मध्यम वर्ग बनाते हैं !!! हम कुछ देर के लिये अरस्तू बनते हैं –कल्पना मे सुकरात बनते हैं लेकिन हकीकत मे मुंगेरी लाल बनते हैं !! किसी भी प्र्त्याशा किसी भी अभीप्सा मे उमीद की किरन ढूण्ढ लेते हैं और अपनी ही अन्ध्भक्ति का शिकार होते हैं—कमलेश साहब !! हमेशा की भाँति अपूर्व वय्ंग्य –व्यापक क्षितिज तक स्रजन करता है आपका कलम !! –सादर मयंक
जवाब देंहटाएंआपकी ये लिंक चर्चा के लिए चुनी हूँ
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