1 जून 2014

संस्मरण - गुरु की तलाश - प्राण शर्मा



जब मैं ग्यारह - बारह साल का था तब मेरी रूचि स्कूल की पढ़ाई में कम और फ़िल्मी गीतों को इकठ्ठा करने और गाने में अधिक थी। नगीना, लाहौर , प्यार की जीत, सबक़ , बाज़ार ,नास्तिक, अनारकली , पतंगा , समाधि , महल , दुलारी इत्यादि फिल्मों के गीत मुझे ज़बानी याद थे। स्कूल से आने के बाद हर समय उन्हें रेडियो पर सुनना  और गाना अच्छा लगता था। नई सड़क, दिल्ली में एक गली थी - जोगीवाड़ा। उस गली में एक हलवाई की दूकान पर सारा दिन रेडिओ बजता था। घर से जब फुरसत मिलती तो मैं गीत सुनने के लिए भाग कर वहाँ पहुँच जाता था।  फिल्मी गीतों को गाते - गाते मैं तुकबंदी करने लगा था और उनकी तर्ज़ों पर कुछ न कुछ लिखता रहता था। ` इक दिल के टुकड़े हज़ार हुए , ` मैं ज़िंदगी में हरदम रोता ही रहा हूँ ` जैसे फ़िल्मी गीतों के मुखड़ों को मैंने अपने शब्दों में यूँ ढाल लिया था --ऐ साजन , तेरा प्यार मिला  जैसे मुझको जैसे मुझको संसार मिला , मैं ज़िंदगी में खुशियाँ भरता ही रहूँगा , भरता ही रहूँगा , भरता ही रहूँगा , मैं ज़िंदगी को रोशन करता ही रहूँगा। चूँकि किसीने मेरे मन में यह बात भर दी थी कि गीत-कविता लिखने वाले भांड होते हैं और अच्छे घरानों में उन्हें बुरी नज़र से देखा जाता है इसलिए शुरू - शुरू में मैं बाऊ जी और बी जी से लुक - छिप कर कविता करता था और उन्हें अपने बस्ते और संदूक में संभाल कर रखता था। धीरे - धीरे ` कवि भांड होते हैं ` वाली भावना मेरे दिमाग से निकल गई। मैंने देखा कि बाऊ जी और बी जी तो कविता प्रेमी हैं। बी जी को पंजाब के अनेक लोक गीत याद थे -

ढेरे ढेरे ढेरे
तेरे - मेरे पयार दियाँ
गलाँ होण संतां दे डेरे
सोहणी सूरत दे
पहली रात दे डेरे
               ( गिध्दा )

छंद परागे आइये - जाइए
छंद परागे आला
अकलां वाली साली मेरी
सोहणां मेरा साला

चाँद परागे आइये - जाइए
छंद परागे केसर
सास तां मेरी पारबती
सहुरा मेरा परमेशवर
( विवाह पर वर द्वारा गाया जाने वाला छंद )

ये कुछ ऐसे लोक  गीत हैं जिन्हें बी जी उत्सवों और विवाहों  पर अपनी सहेलियों के साथ मिल कर गाती थीं। फिर भी मेरे मन में गीत - कविता को लेकर उनका भय बना रहता था।  मैं नहीं चाहता था कि उनके गुस्से का नज़ला मुझ पर गिरे और शेरनी की तरह वे मुझ पर दहाड़ उठें - ` तेरे पढ़ने - लिखने के दिन हैं या कविता करने के ? ` बाऊ जी सनातन धर्म प्रतिनिधि सभा के प्रमुख वक्ता थे। चूँकि वे मास में बीस दिन घर से बाहर रहते थे इसलिए उनका भय मेरे मन में इतना नहीं था जितना बी जी का। ,

       बढ़ती उम्र के साथ - साथ मेरी कविताओं में कुछ - कुछ परिपक्वता आनी शुरू हो गई थी। सोलह - सत्रह का मैं हो गया था।

यौवन का नया - नया जोश था। कइयों की तरह मुझ में भी यह गलतफहमी पैदा  हो गई कि मुझ में भरपूर प्रतिभा है और कविता लेखन में मैं कालिदास , तुलसीदास या सूरदास से कतई काम नहीं हूँ। चूँकि मैं अच्छा गा  लेता था और रोज़ गा - गा कर कुछ न कुछ लिखता रहता था इसलिए मैं भी महाकवि होने के सलोने सपने संजोने लगा था। मेरी हर रची काव्य - पंक्ति मुझे बढ़िया दिखने लगी थी और मैं उसको अपनी अमूल्य निधि समझने लगा था। मेरे यार - दोस्त मेरी कविताओं के ईर्ष्यालु निकले। मेरी सब की सब कविताओं को कूड़ा - कचरा कहते थे। वे सुझाव देते थे - `कवि बनना छोड़ और पढ़ाई - वढ़ाई  में ध्यान दे। ` मैं उनके सुझाव को एक कान से सुनता था और दूसरे कान से निकाल देता था। भला कोई रात - दिन के कड़े परिश्रम से अर्जित कमाई भी कूड़ेदान में फैंकता है ? चूँकि मेरी हर रचना मेरी दृष्टि में बढ़िया होती थी इसलिए मुझे बड़ा क्लेश होता था जब कोई दोस्त मेरी कविता को महज तुकबंदी कह कर नकारता था। शायद मैं सोलह साल कथा जब मैंने यह कविता लिखी थी -

एक नदिया बह  रही है
और तट से कह रही है
तुम न होते तो न जाने
रूप मेरा कैसा  होता
ज़िंदगी  मेरी कदाचित
उस मुसाफिर सी ही होती
जो भटक जाता है
अपने रास्ते से
मैं तुम्हारी ही ऋणी हूँ
तुमने मुझको कर नियंत्रित
सीमा में बहना सिखाया
तुम हो जैसे शांत - संयम
वैसा ही मुझ को बनाया

     मैंने कविता दोस्तों को सुनायी। सोचा था  कि इस बार ख़ूब दाद मिलेगी। सब के चेहरों पर खुशी की लहर दौड़ जाएगी और उछल  कर वे कह उठेंगे - ` वाह क्या बात है ! कविता हो तो ऐसी हो !! तूने तो अच्छे - अच्छे कवियों की छुट्टी कर दी है। भाई , मान गए तेरी प्रतिभा को। ` लेकिन मेरा सोचना गलत साबित हुआ। किसी ने मुझे घास तक नहीं डाली।  एक ने तो जाते - जाते यह कह कर मेरा मन छलनी - छलनी कर दिया था - ` कविता करना तेरे बस की बात नहीं है। बेहतर है कि गुल्ली - डंडा खेल कर या गुड्डी उड़ाया कर। ` दूसरे दोस्त भी उसका कटाक्ष सुन कर मुझ पर हंस पड़े थे। मेरे दोस्तों के उपेक्षा भरे व्यवहार के बावजूद भी कविता के प्रति मेरा झुकाव बरक़रार रहा। ये दीगर बात है कि किछ देर के लिए मुझमें कविता से विरक्ति पैदा हो गई थी। कहते हैं न - ` छुटती नहीं शराब मुँह से लगी हुई। `
    
प्रभाकर में प्रवेश पाने के बाद कविता करने की मेरी आसक्ति फिर से पैदा हो गई। काव्य संग्रह के एक दोहे ने मुझ में उत्साह भर दिया। दोहा था -

गुरु गोबिंद दोनों खड़े ,काके लागूँ पाँय
बलिहारी गुरु आपणो सतगुरु दियो बताय

        मेरे मन में यह बात कौंध गई कि कविता के लिए गुरु की शिक्षा अत्यावश्यक है। कविता का व्याकरण उसी से जाना जा सकता है , कविता के गुण - दोष उसी से ज्ञात हो सकते हैं। एक अन्य पुस्तक से मुझे सीख मिली कि कविता सीखने के लिए गुरु का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक तो है ही , अध्ययन , परख और विचार -विमर्श भी अत्यावश्यक है। मैं गुरु की तलाश में जुट गया।

        एक दिन कविवर देवराज दिनेश मेरे बाऊ जी से मिलने के लिए हमारे घर में आये थे। मेरे सिवाय घर में कोई नहीं था। बाऊ जी से उनका पुराना मेल था।  भारत विभाजन के पूर्व लाहौर में कवि - सम्मेलनों में हरिकृष्ण `प्रेम` , उदय शंकर भट्ट , शम्भू नाथ `शेष` , देवराज ` दिनेश` इत्यादि कवियों की सक्रिय भागीदारी रहती थी। प्रोफेसर वशिष्ठ शर्मा केनाम से विख्यात बाऊ जी सनातन धर्म प्रतिनिधि सभा से जुड़े हुए थे और पंजाब में हिन्दू धर्म के प्रचार - प्रसार के साथ - साथ हिंदीका भी प्रचार - प्रसार करने वालों में एक थे। चूँकि वे कई कवि सम्मेलनों के सयोजक थे इसलिए पंजाब के प्राय सभी हिंदी कवियों से उनकी जान - पहचान थी।
    
  देवराज दिनेश दूर से बाऊ जी को मिलने के लिए आये थे। शायद वे मालवीय नगर में रहते थे और हम लाजपत नगर में। वे कवि कम और पहलवान अधिक दिखते थे। खूब भारी शरीर था उनका।  वे दरवाज़े के सहारे कुछ ऐसे खड़े थे कि मुझे लगा कि थके - थके हैं। मैं उनसे एक - दो बार पहले भी थोड़ी - थोड़ी देर के लिए मिल चुका था। उनको अंदर आने के लिए मैंने कहा। कुर्सी पर बैठते ही उन्होंने चैन की सांस ली। हिंदी के एक प्रतिष्ठित कवि देवराज दिनेश मेरे गुरु बन जाएँ तो व्यारे - न्यारे हो जाएँ मेरे तो। इसी सोच से  मेरे मन में खुशी के लड्डू फूटने लगे। उन्होंने मुझे अपने पास वाली कुर्सी पर बैठने के लिए कहा। मैं रोमांचित हो उठा। अंधे को दो आँखें मिल गईं। बातचीत का सिलसिला शुर हुआ। वे बोले -

` किस क्लास में पढ़ते हो ? ‘
- जी , प्रभाकर कर रहा हूँ।
- आगे क्या करोगे ?
- जी , अभी कुछ सोचा नहीं है।
- तुम्हारा शौक़ क्या है ?
- जी , कविता गीत लिखता हूँ।
- तुम भी पागल बनना चाहते हो ?
- क्या कवि पागल होते हैं ?
- लोग तो यही कहते हैं।
- अगर कवि पागल होते हैं तो मुझे पागल बनना स्वीकार है।

     वे हँस पड़े।  हँसते - हँसते ही मुझ से कहने  लगे - ` चलो , अब तुम अपना कोई गीत सुनाओ। ` मैं उमंग में गा उठा -

घूँघट तो खोलो मौन प्रिये
क्यों बार - बार शरमाती हो
क्यों इतना तुम इतराती हो
मैं तो दर्शन का प्यासा हूँ
क्यों मुझ से आँख चुराती हो
मैंने क्या है अपराध किये
घूंघट तो खोलो मौन प्रिये
मिलने की मधुऋतु है आई
क्यों तजती हो तुम पहुनाई
अब लाज कुँआरी छोड़ो  तुम
आतुर है मेरी तरुणाई
कब से बैठा हूँ आस लिए वे कवि हैं
घूँघट तो खोल मौन प्रिये

        गीत सुन कर देवराज दिनेश कड़े शब्दों में बोले  - ` देखो , तुम्हारी उम्र अभी पढ़ने की है। कविता - गीत तो तुम पढ़ाई खत्म होने के बाद भी लिख सकते हो। इनमें अपना समय बर्बाद मत करो। पढ़ाई की ओर ध्यान दो , ख़ूब मन लगा कर पढ़ो। हाँ , भविष्य में कोई गीत लिखो तो इस बात का ध्यान रखना कि वह फूहड़ फ़िल्मी गीत जैसा नहीं हो। छंदों का ज्ञान होना चाहिए। ` जाते - जाते वे कई नश्तर मुझे चुभो गए। उनकी उपदेश भरी बातें मुझे अप्रिय लगीं।  उनका लहज़ा मेरा ह्रदय छलनी - छलनी कर गया। सारी रात चारपाई पर मैं करवटें लेता रहा। सोचता रहा कि मेरा गीत उनको फूहड़ फ़िल्मी गीत जैसा क्यों लगा ? मेरे गीत में लय कहाँ भंग होती हैपढ़ाई के साथ साथ - साथ कविता या गीत की रचना क्यों नहीं की जा सकती है ? आशा की एक किरण जागी थी कि देवराज दिनेश से कविता करने में मार्ग दर्शन होगा वह भी जाती रही।

          कुछ दिनों के बाद मन हल्का हुआ। अचानक एक दिन लाजपत नगर की मार्केट में एक चौबीस - पच्चीस साल के नौजवान मिले।  आकर्षक व्यक्तित्व था उनका। लम्बे - लम्बे घुंघराले केश थे उनके। रेशमी कुर्ता और पाजामा उनके चेहरे को चार चाँद लगा रहा था। मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि वे कवि हैं और कई लड़के - लड़कियों को कविता करना सिखाते हैं।  मैं उनसे बड़ा प्रभावित हुआ और कह उठा - ` मुझे भी कविता करनी सिखाइये। उन्होंने मुझे अपने गले से लगा लिया। बोले - ` अवश्य सिखाऊँगा लेकिन ------- `
  
        ` लेकिन क्या ? `
            ` गुरु दक्षिणा देनी पड़ेगी आपको सीखने से  पहले। `
            ` गुरु दक्षिणा ? क्या देना पड़ेगा मुझे ?
            ` केवल पचास रूपये। `

              सुन कर मेरे पसीने छूट गए। पचास रूपये मेरे लिए बड़ी रकम थी। रोज़ बी जी से मुझे एक रुपया ही मिलता था जेब खर्च के लिए। फिर भी मैंने ` हाँ ` कह दी। पचास रूपये की गुरु दक्षिणा मुझे एक सप्ताह में ही देनी थी। जैसे - तैसे मैंने रुपये जोड़े। कुछ रुपये मैंने दोस्तों से उधार लिए  कुछ बी जी से झूठ बोल कर। मैंने रुपये जोड़े ही थे कि उनकी पोल खुल गयी। रोज़ की तरह वह मार्केट में मिले। मिलते ही बोले - ` मैंने एक नयी कविता लिखी है। ` मैं सुनने के लिए बेताब हो गया। वह सुनाने लगे -

पूरब में जागा है सवेरा
दूर हुआ दुनिया का अँधेरा
लेकिन घर तारीक है मेरा
पश्चिम में जागी हैं घटाएँ   
फिरती हैं मदमस्त हवाएँ
जाग उठो मयख़ाने वालो
पीने और -----------

         वह ज्यों - ज्यों कविता सूना  रहे थे मैं त्यों - त्यों हैरान हुए जा रहा था। मैंने उनको बीच मे ही टोक दिया  - ` ये कविता तो उर्दू के शायर हफ़ीज़ जालंधरी की है। `
             सुनते ही वह नौ - दो ग्यारह हो गए। उफ़ , यहाँ भी निराशा हाथ लगी।
             कहते हैं कि सच्चा गुरु अच्छे भाग्य से ही मिलता है। मेरा भाग्य अच्छा नहीं है , मुझे ऐसा लगा। फिर भी मैं साहस बटोर कर गुरु की तलाश में जुटा रहा। मैं अपने संदूक से कविताओं की कॉपी निकाल कर ले आया। बी जी ने कॉपी को कई बार चूमा और माथे से लगाया। मैं यह सब देख कर मन ही मन झूम रहा था। वह एक साँस में ही कई कवितायें पढ़ गयीं। उनकी ममता बोली - ` मेरा लाडला कितना प्रतिभाशाली है ! एक दिन अवश्य बड़ कवि बनेगा। `

             बी जी को कविताओं की कुछेक पँक्तियों में दोष नज़र आये। जैसे -

             नील गगन में तारे चमके
                        या
             आँधी में दीपक जलता है
             वह नम्रता से समझने लगीं –

` देख बेटे , छंद तो कभी भी ठीक किया  जा सकता है किन्तु कविता में अस्वाभाविकता को दूर करना कठिन हो जाता है। सारी पंक्ति को ही हटाना पड़ता है।  सोच , क्या नील गगन में कभी तारे चमकते हैं ? नीला गगन सूरज के प्रकाश से  होता है , रात के अँधेरे से नहीं। जब दीपक हवा में नहीं जल पाता तो आँधी में क्या जलेगा ? ` तनिक विराम के बाद  वे बोलीं - ` मुझे एक बात याद आ रही है , तुझे सुनाती हूँ भारत के बंटवारे के एक - दो साल पहले की बात है।  वज़ीराबाद ( पाकिस्तान ) में मेरी एक सहेली थी - रुकसाना। उन दिनों फिल्म रत्न के सभी गीत लोकप्रिय थे। उनमें एक गीत था - मिल के बिछड़ गई अँखियाँ हाय  रामा मिल के बिछड़ गयी अँखियाँ। गीत को लिखा था डी एन मधोक ने।  लोग उनको महाकवि कहते थे। गीत गाया था उस समय की मशहूर गाने वाली जौहरा बाई अम्बाले वाली ने। रुकसाना को गीत के मुखड़े पर एतराज़ था कहने लगी - ` मुखड़े में हाय रामा ने गीत का सत्यानाश कर दिया है। हाय रामा की जगह पर हाय अल्लाह होना चाहिए। ` मैंने सोचा कि रुकसाना अनजान है। मुझे उसको समझाना पड़ा –

` देख रुकसाना , कवि ने राम के दुःख  की तरह अँखियों के दुःख का वर्णन किया है। जिस तरह सीता के वियोग  का दुःख राम को सहना पड़ा था उसी तरह प्रियतमा की अँखियों को साजन की अँखियों से मिल के बिछुड़ जाने का दुःख झेलना पड़ रहा है। `

             मैं  दो जमातें पढ़ी बी जी में एक नया रूप देख रहा था। वह रूप जिसकी मुझको तलाश थी।  एक दिन बी जी को बाऊ जी से मालूम हुआ कि मैं कविता लिखता हूँ। यह बात  देवराज दिनेश ने बाऊ जी को बतायी थी। बी जी ने मुझे अपने पास बिठा कर बड़ी नम्रता से पूछा - ` क्या तू वाकई कविता लिखता है ?` मैंने डरते – डरते `हाँ ` में अपना सिर हिला दिया। मैंने देखा - उनका चेहरा मुस्कराहट से भर गया है। मेरे ह्रदय में संतोष जाग उठा। मैंने  व्यर्थ ही कविता को लेकर अपने ह्रदय में भय पाल रखा था। बी जी के बोल मेरे कानों में गूँज उठे - ` मेरे लाडले , कोई भाग्यशाली  ही कविता  रचता है।रचता है। ` काश , मैंने कविता रचने की बात शुरू में ही बी जी और बाऊ जी को बतायी होती। चूँकि रहस्य  खोला था देवराज दिनेश ने इसलिए अब उनका कद मेरी दृष्टि में बड़ा ऊँचा हो गया था। बी जी का कहना ज़ारी था - ` क्या तू जानता है कि मैं कितनी खुश हुई थी जब तेरे बाऊ जी ने बताया कि तू कविता लिखता है। तूने आज तक ये बात हमसे छिपाई क्यों ? तेरे बाऊ जी तुझ से बड़े नाराज़ हैं। अच्छा दिखा तो सही अपनी कविताएँ , कहाँ छिपा रखी  हैं तूने ? देख - पढ़ कर मैं अपनी सहेलियों से मान से कहूँगी कि देखो मेरे लाडले की कविताएँ। `



            बी जी की प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं था। उनके उत्साहवर्धक वचन सुनकर मुझे लगा कि जैसे मैंने कई नए कीर्तिमान स्थापित कर लिए हैं।

1 टिप्पणी:

  1. कविता कहने की क्षमता ईशवरीय वरदान है !! संगीत और कला के भाँति –अभ्यास से यह अपने समय और महौल को सिंक्रोनाइज़ करती है लेकिन काव्य की सम्भवना दैवे ही होती है – बहुत सुन्दर संस्मरण है प्राण साहब !!! एक शेर आपके लिये -- हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
    जिस तरफ भे चल पडेंगे रास्त हो जायेगा –बशीर बद्र

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