ज़िन्दगी
के हसीं मक़ाम पे हूँ
ऐसा
लगता है राहे आम पे हूँ
साथ
देते नहीं हैं पाँव मेरे
जाने
किस राहे तेज़गाम पे हूँ
लफ्ज़
ख़ामोश हो गए सारे
कौन
सी मंज़िले-कलाम पे हूँ
सुब्ह
के दर पे लोग आ पहुँचे
मैं
अभी तक मुहाज़े-शाम पे हूँ
पस्तियों
के भँवर में उलझा हूँ
फिर
भी लगता है औजे-बाम पे हूँ
अब भी
सरसब्ज़ हूँ मैं ज़ख़्मों से
मुन्हसिर
दर्दे-न-तमाम पे हूँ
लोग
पीते हैं चश्मे-साकी से
मुतमईन
मैं शराबे-जाम पे हूँ
जीस्त
की इब्तिदा न कर पाया
उम्र
के आखरी मक़ाम पे हूँ
एक
कहानी हूँ मैं कोई 'हादी '
या
फ़साना कि इख़्तिताम पे हूँ
मक़ाम
- स्थान, तेज़गाम -
तेज़ रास्ता, कलाम -
गुफ्तगू, मुहाज -
मोर्चा, पस्तियों
- गहराइयाँ , निचाइयां, औजे-बाम—उंचाइयां, सरसब्ज़-- हरा भरा, मुन्हसिर – निर्भर, ज़ीस्त -- ज़िंदगी
इब्तिदा – शुरुआत, इख़्तिताम
- खत्म
हादी
जावेद
8273911939
बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मख़बून
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
2122 1212 22
मेरे भाई हादी जावेद सादलौह हैं !! जिस शाइस्तगी और ज़हानत के साथ उन्होने इस जहाने काफिर के साथ ज़िन्दगी बसर की है वैसा कोई मोमिन ही कर सकता है !! उनके गज़ल भी उनकी शख़्सीयत और मिज़ाज का आईना है – कितने सीदे सादे सच्चे और रूह की गहराई से उतरे हुये शेर जो एक ही बार मे दिल से जिगर तक उतर जाते हैं – क्य खूब !!
जवाब देंहटाएंलफ्ज़ ख़ामोश हो गए सारे
कौन सी मंज़िले-कलाम पे हूँ
सुब्ह के दर पे लोग आ पहुँचे
मैं अभी तक मुहाज़े-शाम पे हूँ
जीस्त की इब्तिदा न कर पाया
उम्र के आखरी मक़ाम पे हूँ
एक कहानी हूँ मैं कोई 'हादी '
या फ़साना कि इख़्तिताम पे हूँ
बहुत बहुत शुभ्रकामनायें –अपने भाई को –मयंक