1 जून 2014

कविता - लीडर जी, परनाम तुम्हें हम मज़दूरों का, - शैलेन्द्र



लीडर जीपरनाम तुम्हें हम मज़दूरों का,
हो न्यौता स्वीकार तुम्हें हम मज़दूरों का;
एक बार इन गन्दी गलियों में भी आओ,
घूमे दिल्ली-शिमलाघूम यहाँ भी जाओ!

जिस दिन आओ चिट्ठी भर लिख देना हमको
हम सब लेंगे घेर रेल के इस्टेशन को;
'
इन्क़लाबके नारों सेजय-जयकारों से--
ख़ूब करेंगे स्वागत फूलों सेहारों से !

दर्शन के हित होगी भीड़न घबरा जाना,
अपने अनुगामी लोगों पर मत झुंझलाना;
हाँइस बार उतर गाड़ी से बैठ कार पर
चले न जाना छोड़ हमें बिरला जी के घर !

चलना साथ हमारे वरली की चालों में,
या धारवि के उन गंदे सड़ते नालों में--
जहाँ हमारी उन मज़दूरों की बस्ती है,
जिनके बल पर तुम नेता होयह हस्ती है !

हम तुमको ले साथ चलेंगे उस दुनिया में,
सुकुमारी बम्बई पली है जिस दुनिया में,
यह बम्बईआज है जो जन-जन को प्यारी,
देसी - परदेसी के मन की राजदुलारी !


हम तुमको ले साथ चलेंगे उस दुनिया में,
नवयुवती बम्बई पली है जिस दुनिया में,
किन्तुन इस दुनिया को तुम ससुराल समझना,
बन दामाद न अधिकारों के लिए उलझना ।

हमसे जैसा बनेसब सत्कार करेंगे--
ग़ैर करें बदनामन ऐसे काम करेंगे,
हाँहो जाए भूल-चूक तो नाम न धरना,
माफ़ी देना नेतामन मैला मत करना।


जैसे ही हम तुमको ले पहुँचेंगे घर में,
हलचल सी मच जाएगी उस बस्ती भर में,
कानाफूसी फैल जाएगी नेता आए--
गांधी टोपी वाले वीर विजेता आए ।


खद्दर धारीआज़ादी पर मरने वाले
गोरों की फ़ौज़ों से सदा न डरने वाले
वे नेता जो सदा जेल में ही सड़ते थे
लेकिन जुल्मों के ख़िलाफ़ फिर भी लड़ते थे ।

वे नेताबस जिनके एक इशारे भर से--
कट कर गिर सकते थे शीश अलग हो धड़ से,
जिनकी एक पुकार ख़ून से रंगती धरती,
लाशों-ही-लाशों से पट जाती यह धरती ।


शासन की अब बागडोर जिनके हाथों में,
है जनता का भाग्य आज जिनके हाथों में ।
कानाफूसी फैल जाएगी नेता आए--
गांधी टोपी वाले शासक नेता आए ।

घिर आएगी तुम्हें देखने बस्ती सारी,
बादल दल से उमड़ पड़ेंगे सब नर-नारी,
पंजों पर हो खड़ेउठा बदनउझक कर,
लोग देखने आवेंगे धक्का-मुक्की कर ।


टुकुर-मुकुर ताकेंगे तुमको बच्चे सारे,
शंकरलीलामधुकरधोंडूराम पगारे,
जुम्मन का नाती करीमनज्मा बुद्धन की,
अस्सी बरसी गुस्सेवर बुढ़िया अच्छन की ।


वे सब बच्चे पहन चीथड़ेमिट्टी साने,
वे बूढ़े-बुढ़ियाजिनके लद चुके ज़माने,
और युवकगण जिनकी रग में गरम ख़ून है,
रह-रह उफ़ न उबल पड़ता हैनया खून है।

घिर आएगी तुम्हें देखने बस्ती सारी,
बादल दल से उमड़ पड़ेंगे सब नर-नारी,
हेच काय रे कानाफूसी यह फैल जाएगी,
हर्ष क्षोभ की लहर मुखों पर दौड़ जाएगी ।

हाँदेखो आ गया ध्यान बन आए न संकट,
बस्ती के अधिकांश लोग हैं बिलकुल मुँहफट,
ऊँच-नीच का जैसे उनको ज्ञान नहीं है,
नेताओं के प्रति अब वह सम्मान नहीं है ।

उनका कहना हैयह कैसी आज़ादी है
वही ढाक के तीन पात हैंबरबादी है,
तुम किसान-मज़दूरों पर गोली चलवाओ,
और पहन लो खद्दरदेशभक्त कहलाओ ।

तुम सेठों के संग पेट जनता का काटो,
तिस पर आज़ादी की सौ-सौ बातें छाँटो ।
हमें न छल पाएगी यह कोरी आज़ादी,
उठ रीउठमज़दूर-किसानों की आबादी ।

हो सकता हैकड़वी-खरी कहें वे तुमसे,
उन्हें ज़रा मतभेद हो गया है अब तुमसे,
लेकिन तुम सहसा उन पर गुस्सा मत होना,
लाएँगे वे जनता का ही रोना-धोना ।

वे सब हैं जोशीलेकिन्तु अशिष्ट नहीं हैं,
करें तुमसे बैरउन्हें यह इष्ट नहीं है,
वे तो दुनिया बदल डालने को निकले हैं,
हिन्दूमुस्लिमसिखपारसीसभी मिले हैं ।

फिरजब दावत दी है तो सत्कार करेंगे,
ग़ैर करें बदनामन ऐसे काम करेंगे,
हाँहो जाए भूल-चूक तो नाम न धरना,
माफ़ी देना नेतामन मैला मत करना



अमर कवि शैलेन्द्र


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें