1 जून 2014

जनक छंद – कुमार गौरव अजीतेन्दु





काम सितारे दें कहाँ
उनमें नभ का दर्प है-
आस लगाओ मत यहाँ

विहँस रहा हैवान है
सज्जनता सिमटी पड़ी-
प्रीत बड़ी हलकान है

ये कैसे दिन आ गए
धुँआ-धुँआ सी है हवा-
मेघ बदन झुलसा गए

जीवन भी हो छंद सम
अनुशासन पग-पग रहे-
दूर करे नित व्याप्त तम

बुला रहा कब से गगन
पंछी ही असमर्थ है-
दोनों के मन में अगन

नौका में भी छेद है
जाए कैसे पार वो-
माँझी के मन भेद है

दयावान दीया बड़ा
बचा-खुचा तम ले शरण-
उसके ही तल में पड़ा

कोयल बैठी गा रही
एक गिलहरी पास ही-
देख उसे ललचा रही

छाया के मन भीत है
साँझ ढले मिटना उसे-
जग की ये ही रीत है

मौसम भी बौरा गया
करी तपिश की कामना-
ये पानी बरसा गया

नहीं सदा दुष्कार्य है
शांति हेतु तो युद्ध भी-
कभी-कभी अनिवार्य है

घिरती आती शाम है
दिन की चर्चा हो रही-
शनैः-शनैः गुमनाम है

गले-गले में प्यास है
नीर गया हड़ताल पर-
सूखेपन का वास है

मन-पंछी जाए कहाँ
सहमा बैठा नीड़ में-
बहेलियों का है जहाँ

दीन-हीनमजबूर हैं
दूजों पर क्या कुछ लिखें-
हम तो खुद मजदूर हैं

वही स्नेह की छाँव है
अपनी सी हर इक डगर-
आखिर अपना गाँव है

काँटे न हों गुलाब में
ये तो वो ही बात ज्यों-
नशा रहे न शराब में

हम कैसे अपना कहें
तुम हो इक आभास भर-
क्यों न तुम्हें सपना कहें

हम जल देते भापकर
मेघ न देते कुछ हमें-
वो लौटाते ब्याजभर

स्वाभिमान मत छोड़ना
जीवन का ये रत्न है-
कभी न इसको तोड़ना

बैरी जिसका लाभ ले
इतने मीठे क्यों बनें-
गप से कोई चाभ ले


कुमार गौरव अजीतेन्दु
9631655129

जनक छन्द
मात्रिक छन्द
कुल तीन चरण
दोहे के विषम यानि पहले और तीसरे चरण की तरह 
प्रत्येक चरण के अन्त में रगण या 212 वाला पदभार अनिवार्य
पहला और तीसरा चरण समान तुक / हमक़ाफ़िया 


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