तख़य्युल के
फ़लक से कहकशाएँ हम जो लाते हैं
सितारे ख़ैरमक़दम के लिए आँखें बिछाते हैं
मेरी
तनहाई के दर पर ये दस्तक कौन देता है
मेरी तीराशबी में किस के साए सरसराते हैं
हक़ीक़त
से अगरचे कर लिया है हम ने समझौता
हिसार-ए-ख़्वाब में बेकस इरादे कसमसाते हैं
मज़ा
तो ख़ूब देती है ये रौनक़ बज़्म की लेकिन
मेरी तन्हाइयों के दायरे मुझ को बुलाते हैं
बिलखती
चीख़ती यादें लिपट जाती हैं क़दमों से
हज़ारों कोशिशें कर के उसे जब भी भुलाते हैं
ज़मीरों
में लगी है ज़ंग, ज़हन-ओ-दिल मुकफ़्फ़ल हैं
जो ख़ुद मुर्दा हैं, जीने की अदा हम को सिखाते हैं
वो
लम्हे, जो कभी हासिल रहे थे ज़िंदगानी का
वो
लम्हे आज भी “मुमताज़” हम को ख़ूँ रुलाते हैं
मुमताज़
नाज़ां
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें