सम्पादकीय
प्रणाम। अप्रेल
का महीना, चिलचिलाती धूप और चुनावों की सरगर्मियाँ। अप्रेल महीने का एक भी दिन ऐसा नहीं गया जब दिल-दिमाग़ को ठण्डक महसूस हुई हो। खुला हुआ रहस्य यह है कि आज हिन्दुस्तान की हालत "ग़रीब की जोरू सारे गाँव की भौजाई" जैसी है। घर के अन्दर रोज़-रोज़ की पञ्चायतें हैं, पास-पड़ौस वाले जब-तब आँखें तरेरते रहते हैं, मर्यादा जैसे शब्द को तो भूल ही गये हों जैसे। अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी जब-तब मिट्टी पलीद होती रहती है। ऐसे में एक दमदार नेतृत्व की सख़्त ज़ुरूरत है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक मोदी से बेहतर विकल्प दिखाई पड़ नहीं रहा, अगर कोई और विकल्प होता तो हम अवश्य ही उस किरदार के बारे में बात करते। लेकिन हमें हरगिज़ इस मुगालते में नहीं रहना चाहिये कि फ़िरङ्गियों के यहाँ गिरवी रखे हुये देश का प्रधानमन्त्री बनना मोदी के लिये कोई बहुत बड़ी ख़ुशी का सबब होगा। बहरहाल, लोकतन्त्र के उज्ज्वल भविष्य की मङ्गल-कामनाएँ।
हम चाहते हैं कि हमारे नौजवान खूब दिल लगा कर पढ़ें, अच्छे नम्बरों से पास हों और अच्छे काम-धन्धे से लगें। मगर हम करते क्या हैं? [1] खूब दिल लगा कर पढ़ें - चौबीस घण्टे उन के इर्द-गिर्द हम ने इतने सारे ढ़ोल बजवा रखे हैं कि दिल लगा कर तो ल्हेंची [खड्डे] में गया, सामान्य रूप से पढ़ना भी दूभर है। [2] अच्छे नम्बरों से पास हों - इस विपरीत वातावरण में भी कुछ बच्चे अप्रत्याशित परिणाम ले आते हैं। मगर अफ़सोस CET में 99% परसेण्टाइल लाने के बावजूद उन्हें टॉप में पाँचवी रेङ्क वाला कॉलेज मिलता है। हालाँकि उसी कॉलेज में उन के साथ 50 परसेण्टाइल वाले बच्चे भी पढ़ते हुये मिल जाएँ तो आश्चर्य नहीं। क्या सोचते होंगे ये बच्चे - ऐसी स्थिति में? क्या हम उन्हें अराजक नहीं बना रहे? [3] अच्छे काम-धन्धे से लगें - अच्छा काम-धन्धा!!!!!! कौन सा काम-धन्धा अच्छा रह गया है भाई??????????????????? इनडायरेक्टली हम अपने यूथ को निर्यात होने दे रहे हैं।
क्या आप ने कभी अन्दाज़ा लगाया है कि हमारे नौजवानों की गाढ़ी मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा गेजेट्स खाये जा रहे हैं। औसत नौजवान साल में कम से कम एक बार सेलफोन बदल लेता है। इस बदलाव पर आने वाला खर्च अमूमन 10000 होता है। टेब्स या उस जैसी नयी तकनीक को खरीदने पर भी अमूमन दस हज़ार का ख़र्चा पक्का समझें। इन टोटकों को पाले रखने के लिये चुकाया जाने वाला किराया-भाड़ा भी अमूमन दस हज़ार से कम क्या? इस नये शौक़ के साथ एक पर एक फ्री की तरह आने वाले लुभावने ख़र्चीले ओफ़र्स भी महीने में 2-3 हज़ार यानि साल में 30-40 हज़ार उड़ा ही लेते हैं नौजवानों की पोकेट्स से। कुल मिला कर बहुत ज़ियादा नहीं तो भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से 50 हज़ार तो होम हो ही जाते होंगे। औसत नौजवान की एक साल की औसत कमाई [जी हाँ कमाई - लोन, चम्पी या उठाईगिरी नहीं] शायद तीन लाख नहीं है। यदि यह आँकड़े सही हैं तो बन्दा अपनी दो महीने की कमाई उड़ाये जा रहा है। बचायेगा क्या? नहीं बचायेगा तो आने वाले बुरे वक़्त से ख़ुद को कैसे बचायेगा? कभी-कभी लगता है कि एक सोची-समझी रणनीति के तहत इस पीढ़ी को खोखला किया जा रहा है। ईश्वर करे कि मेरा यह सोचना ग़लत हो।
हम चाहते हैं कि हमारे नौजवान खूब दिल लगा कर पढ़ें, अच्छे नम्बरों से पास हों और अच्छे काम-धन्धे से लगें। मगर हम करते क्या हैं? [1] खूब दिल लगा कर पढ़ें - चौबीस घण्टे उन के इर्द-गिर्द हम ने इतने सारे ढ़ोल बजवा रखे हैं कि दिल लगा कर तो ल्हेंची [खड्डे] में गया, सामान्य रूप से पढ़ना भी दूभर है। [2] अच्छे नम्बरों से पास हों - इस विपरीत वातावरण में भी कुछ बच्चे अप्रत्याशित परिणाम ले आते हैं। मगर अफ़सोस CET में 99% परसेण्टाइल लाने के बावजूद उन्हें टॉप में पाँचवी रेङ्क वाला कॉलेज मिलता है। हालाँकि उसी कॉलेज में उन के साथ 50 परसेण्टाइल वाले बच्चे भी पढ़ते हुये मिल जाएँ तो आश्चर्य नहीं। क्या सोचते होंगे ये बच्चे - ऐसी स्थिति में? क्या हम उन्हें अराजक नहीं बना रहे? [3] अच्छे काम-धन्धे से लगें - अच्छा काम-धन्धा!!!!!! कौन सा काम-धन्धा अच्छा रह गया है भाई??????????????????? इनडायरेक्टली हम अपने यूथ को निर्यात होने दे रहे हैं।
क्या आप ने कभी अन्दाज़ा लगाया है कि हमारे नौजवानों की गाढ़ी मेहनत की कमाई का एक बड़ा हिस्सा गेजेट्स खाये जा रहे हैं। औसत नौजवान साल में कम से कम एक बार सेलफोन बदल लेता है। इस बदलाव पर आने वाला खर्च अमूमन 10000 होता है। टेब्स या उस जैसी नयी तकनीक को खरीदने पर भी अमूमन दस हज़ार का ख़र्चा पक्का समझें। इन टोटकों को पाले रखने के लिये चुकाया जाने वाला किराया-भाड़ा भी अमूमन दस हज़ार से कम क्या? इस नये शौक़ के साथ एक पर एक फ्री की तरह आने वाले लुभावने ख़र्चीले ओफ़र्स भी महीने में 2-3 हज़ार यानि साल में 30-40 हज़ार उड़ा ही लेते हैं नौजवानों की पोकेट्स से। कुल मिला कर बहुत ज़ियादा नहीं तो भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से 50 हज़ार तो होम हो ही जाते होंगे। औसत नौजवान की एक साल की औसत कमाई [जी हाँ कमाई - लोन, चम्पी या उठाईगिरी नहीं] शायद तीन लाख नहीं है। यदि यह आँकड़े सही हैं तो बन्दा अपनी दो महीने की कमाई उड़ाये जा रहा है। बचायेगा क्या? नहीं बचायेगा तो आने वाले बुरे वक़्त से ख़ुद को कैसे बचायेगा? कभी-कभी लगता है कि एक सोची-समझी रणनीति के तहत इस पीढ़ी को खोखला किया जा रहा है। ईश्वर करे कि मेरा यह सोचना ग़लत हो।
विद्वत्जन! अच्छे साहित्य को अधिकतम लोगों तक पहुँचाने के प्रयास के अन्तर्गत साहित्यम का अगला अङ्क आप के समक्ष है। उम्मीद है यह शैशव-प्रयास आप को पसन्द आयेगा। हिन्दुस्तानी साहित्य के गौरव - पण्डित नरेन्द्र शर्मा जी के गीत, सङ्गीतकार-शायर नौशाद अली, ब्रजभाषा के मूर्धन्य कवि श्री गोविंद कवि, कुछ ही साल पहले के सिद्ध-हस्त रचनाधर्मी गोपाल नेपाली जी, गोपाल प्रसाद व्यास जी के साथ तमाम नये-पुराने रचनाधर्मियों की रचनाएँ इस अङ्क की शोभा बढ़ा रही हैं। इस अङ्क में आप को एक डबल रोल भी मिलेगा। भाई सालिम शुजा अन्सारी जी अब्बा-जान के नाम से भी शायरी करते हैं। अब्बा-जान एक बड़ा ही अनोखा किरदार है। आप को इस किरदार में अपने गली-मुहल्ले के बड़े-बुजुर्गों के दर्शन होंगे। सब से सब की खरी-खरी कहने वाला किरदार। ऐसा किरदार जिस के मुँह से सच सुन कर भी किसी को बुरा न लगे, बल्कि अधरों पर हल्की मुस्कुराहट आ जाये। और भी बहुत कुछ है। पढ़ियेगा, अन्य परिचित साहित्य-रसिकों को भी जोड़िएगा और आप के बहुमूल्य विचारों से अवश्य ही अवगत कराइयेगा। आप की राय बिना सङ्कोच के पोस्ट के नीच के कमेण्ट बॉक्स में ही लिखने की कृपा करें।
आपका अपना
नवीन सी. चतुर्वेदी
मई 2014
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कहानी
व्यंगय
माइक्रो सटायर - आलोक पुराणिक
अथ श्री गनेशाय नमः - शरद जोशी
मैं देश चलाना जानूँ रे - अविनाश वाचस्पति
रचना वही जो फॉलोवर मन भाये - कमलेश पाण्डेय
अथ श्री गनेशाय नमः - शरद जोशी
मैं देश चलाना जानूँ रे - अविनाश वाचस्पति
रचना वही जो फॉलोवर मन भाये - कमलेश पाण्डेय
कविता / नज़्म
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है - गोपाल प्रसाद नेपाली
खूनी हस्ताक्षर - गोपाल प्रसाद व्यास
वृक्ष की नियति - तारदत्त निर्विरोध
तीन कविताएँ - आलम खुर्शीद
अजीब मञ्ज़रे-दिलकश है मुल्क़ के अन्दर - अब्बा जान
सारे सिकन्दर घर लौटने से पहले ही मर जाते हैं - गीत चतुर्वेदी
आमन्त्रण - जितेन्द्र जौहर
चढ़ता-उतरता प्यार - मुकेश कुमार सिन्हा
हम भले और हमारी पञ्चायतें भलीं - नवीन
हाइकु
हाइकु - सुशीला श्योराण
लघु-कथा
प्रसाद - प्राण शर्मा
छन्द
अँगुरीन लों पोर झुकें उझकें मनु खञ्जन मीन के जाले परे - गोविन्द कवि
तेरा जलना और है मेरा जलना और - अन्सर क़म्बरी
जहाँ न सोचा था कभी, वहीं दिया दिल खोय - धर्मेन्द्र कुमार सज्जन
3 छप्पय छन्द - कुमार गौरव अजीतेन्दु
हवा चिरचिरावै है ब्योम आग बरसावै - नवीन
गीत-नवगीत
ज्योति कलश छलके - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
गङ्गा बहती हो क्यूँ - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
जय-जयति भारत-भारती - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
हर लिया क्यों शैशव नादान - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
भरे जङ्गल के बीचोंबीच - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
मधु के दिन मेरे गये बीत - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
ग़ज़ल
न मन्दिर में सनम होते न मस्जिद में ख़ुदा होता - नौशाद अली
उस का ख़याल आते ही मञ्ज़र बदल गया - रऊफ़ रज़ा
चन्द अशआर - फ़रहत अहसास
तज दे ज़मीन, पङ्ख हटा, बादबान छोड़ - तुफ़ैल चतुर्वेदी
सितारा एक भी बाकी बचा क्या - मयङ्क अवस्थी
चोट पर उस ने फिर लगाई चोट - सालिम शुजा अन्सारी
उदास करते हैं सब रङ्ग इस नगर के मुझे - फ़ौज़ान अहमद
जब सूरज दद्दू नदियाँ पी जाते हैं - नवीन
मेरे मौला की इबादत के सबब पहुँचा है - नवीन
आञ्चालिक गजलें
दो पञ्जाबी गजलें - शिव कुमार बटालवी
गुजराती गजलें - सञ्जू वाला
अन्य
साहित्यकार त्रिलोक सिंह ठकुरेला को सम्मान
समीक्षा - शाकुन्तलम - एक कालजयी कृति का अन्श - पण्डित सागर त्रिपाठी
गिरिराज हिमालय से भारत का कुछ ऐसा ही नाता है - गोपाल प्रसाद नेपाली
खूनी हस्ताक्षर - गोपाल प्रसाद व्यास
वृक्ष की नियति - तारदत्त निर्विरोध
तीन कविताएँ - आलम खुर्शीद
अजीब मञ्ज़रे-दिलकश है मुल्क़ के अन्दर - अब्बा जान
सारे सिकन्दर घर लौटने से पहले ही मर जाते हैं - गीत चतुर्वेदी
आमन्त्रण - जितेन्द्र जौहर
चढ़ता-उतरता प्यार - मुकेश कुमार सिन्हा
हम भले और हमारी पञ्चायतें भलीं - नवीन
हाइकु
हाइकु - सुशीला श्योराण
लघु-कथा
प्रसाद - प्राण शर्मा
छन्द
अँगुरीन लों पोर झुकें उझकें मनु खञ्जन मीन के जाले परे - गोविन्द कवि
तेरा जलना और है मेरा जलना और - अन्सर क़म्बरी
जहाँ न सोचा था कभी, वहीं दिया दिल खोय - धर्मेन्द्र कुमार सज्जन
3 छप्पय छन्द - कुमार गौरव अजीतेन्दु
हवा चिरचिरावै है ब्योम आग बरसावै - नवीन
गीत-नवगीत
ज्योति कलश छलके - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
गङ्गा बहती हो क्यूँ - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
जय-जयति भारत-भारती - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
हर लिया क्यों शैशव नादान - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
भरे जङ्गल के बीचोंबीच - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
मधु के दिन मेरे गये बीत - पण्डित नरेन्द्र शर्मा
ग़ज़ल
न मन्दिर में सनम होते न मस्जिद में ख़ुदा होता - नौशाद अली
उस का ख़याल आते ही मञ्ज़र बदल गया - रऊफ़ रज़ा
चन्द अशआर - फ़रहत अहसास
तज दे ज़मीन, पङ्ख हटा, बादबान छोड़ - तुफ़ैल चतुर्वेदी
सितारा एक भी बाकी बचा क्या - मयङ्क अवस्थी
चोट पर उस ने फिर लगाई चोट - सालिम शुजा अन्सारी
उदास करते हैं सब रङ्ग इस नगर के मुझे - फ़ौज़ान अहमद
जब सूरज दद्दू नदियाँ पी जाते हैं - नवीन
मेरे मौला की इबादत के सबब पहुँचा है - नवीन
आञ्चालिक गजलें
दो पञ्जाबी गजलें - शिव कुमार बटालवी
गुजराती गजलें - सञ्जू वाला
अन्य
साहित्यकार त्रिलोक सिंह ठकुरेला को सम्मान
समीक्षा - शाकुन्तलम - एक कालजयी कृति का अन्श - पण्डित सागर त्रिपाठी