धर्मयुग
नहीं
आता था हमारे घर में
प्रतिबन्धित
भी नहीं था
बस
नहीं
आता था
अब
ये बात दीगर है कि
धर्मयुग
की एक प्रति की क़ीमत जितनी थी
उतने
पैसों की कचौड़ी-जलेबी तो
हर
रोज़ ही खा जाता था हमारा परिवार
बस
धर्मयुग नहीं आता था
हम
जैसे बहुतों के घरों में
अलबत्ता
चोरी
छिपे
फिल्मी
कलियाँ और सत्य-कथाएँ ज़रूर आ जाती थीं
कभी-कभी
उपन्यास भी
मगर
धर्मयुग नहीं आता था
उसे
पढ़ते थे हम
किसी
दूकानदार के तख़्ते पर बैठ कर
या
किसी परिचित के घर से
निकलने
वाली रद्दी में से उठाकर
धूल
झाड़ते हुये
आज
भी हम
जब
भी जी चाहे
100-200-500
रुपये के पिज्जा खा लेते हैं
100-200-500-1000
रुपये की पिक्चर देख आते हैं
2-5-10-20
हज़ार वाली पिकनिक्स पर भी जाते रहते हैं
मौक़ा
मिलने पर
FTV – MTV वग़ैरह भी देख ही लेते हैं
सत्य-कथाएँ
सावधान
इण्डिया जैसे सीरियल्स बन कर
धड़ल्ले
से आने लगी हैं
हमारे
बैठकाओं में
फिल्मी
कलियाँ तो न जाने कितने सारे सीरियल्स में मौजूद हैं
जिन्हें
देखते हैं घर परिवार के सब के सब
हाँ
सब के सब
उसी
तरह
माँ-बेटे
एक संग नज़ारे देख रहे
हर
घर की बैठक में एक जलसा-घर है
मगर
धर्मयुग
आज
भी नहीं आता हमारे घरों में
कारण
आये
भी कैसे
बन्द
जो हो गया है
और
अगर बन्द न भी हुआ होता
तो
भी
हम
उन में से थोड़े ही हैं
जो
साहित्य की क़द्र करें
उस
के लिए हर महीने एक बजट रखें
हम
भले और हमारी पञ्चायतें भलीं
आओ अब इस कविता का तिया-पाँचा करें
मेरे मैके में आता था संपादक धर्मवीर भारती का धर्मयुग मैं पढ़ी हूँ ..... तब केवल पढ़ने का शौक था आज भी कुछ लिख पाना आसान कहाँ है मेरे लिए ..... आप बहुत ही सुंदर लिखते हैं
जवाब देंहटाएंGod Bless you