कड़वी सच्ची बात, लोग सुनकर चिढ़ जाते।
अपनी गलती भूल, सभी पर दोष लगाना,
है दुनिया की रीत, दुष्ट को साधु बताना॥
अब जिसको अपना जानिए, चल देता मुँह फेर के।
धनवालों के होने लगे, नाटक सौ-सौ सेर के॥
[2]
आहत, खाकर बाण,
मृत्यु शय्या पर लेटे,
पूछ
रहा है देश,
कहाँ हैं मेरे बेटे।
बचा
रहे हैं प्राण,
कहीं छुप के वारों से?
या
वो नीच कपूत, मिल गये गद्दारों से॥
मुझको
देते उपहार ये,
मेरे निश्छल प्यार का।
क्या
बढ़िया कर्ज चुका रहे,
माटी के उपकार का॥
[3]
कितने-कितने
ख्वाब,
अभी से मन में पाले,
रहे
गुलाटी मार,
सेक्युलर टोपीवाले।
अपने
मन से रोज,
बदलते परिभाषाएँ
कल तक
कहते चोर,
आज खुद गले लगाएँ॥
लेकिन
बेचारे क्या करें,
आदत से लाचार हैं।
वो
बरसाती मेढक सभी,
मतलब के ही यार हैं॥
छप्पय छन्द
कुल छह चरण, पहले चार चरण [13+11] रोला के अन्तिम दो [15+13] उल्लाला के
:- कुमार गौरव अजीतेन्दु
अच्छा लिखा,लिखते रहिए।
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