ये क्या निगाह मिली उम्र से गुजर के मुझे
जो जह्न-ओ-दिल की सभी वुसअतों से बाहर है
तलाशना है उसे रूह में उतर के मुझे
वुसअत - विस्तार, फैलाव
कहाँ ठहरना, कहाँ तेज़-गाम चलना है
थकन सिखायेगी आदाब अब सफ़र के मुझे
तेज़-गाम - तेज़-क़दम
मैं अन्धकार के सीने को चीर सकती हूँ
ये एक किरन ने बताया बिखर-बिखर के मुझे
जो खींच कर के मुझे ले गया रसातल में
वही तो ख़्वाब दिखाता रहा शिखर के मुझे
:- फ़ौज़ान अहमद
बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ
मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
1212 1122 1212 22
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जो जह्न-ओ-दिल की सभी वुसअतों से बाहर है
तलाशना है उसे रूह में उतर के मुझे
वाह ! वाऽह…!
पूरी ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद !
क्या कहने जिंदाबाद ग़ज़ल हुई है साहब
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