वो अब एक बड़े लेखक हैं। हालाँकि अब तक तय नहीं कर पाये या तय करने के
पचड़े में नहीं पड़े कि उन्होंने अब तक जो लिखा है वो है क्या। उनके शब्द जैसे व्योम से
उतर कर किसी भी क्रम में जगह बनाते एक रचना का आकार ले लेते हैं। वे शब्दों को आतिशबाज़ी
की चिङ्गारियों की तरह छिटकने देते हैं, गद्यनुमा पद्य
या पद्यनुमा गद्य के साँचे में पानी की चाल से उतरने देते हैं। उनकी रचनाओं का वज़न
दो ग्राम(अर्थात दो शब्द) से लेकर दो टन (यानि महाकाव्यात्मक) तक हो सकता है पर उनके
‘फैन’ और ‘फ़ालोवर’ उन्हें अपने दिल पर लपक लेते हैं। वे आज के दौर में फेसबुक के साहित्यकार
हैं।
ये सिलसिला कहाँ से शुरू हुआ, मुझे नहीं पता।
अब तो वो फेसबुक तक सीमित भी नहीं। अपने फेस्बुकिया अवतार में वे बाहर भी पहचाने जाते
हैं। बाहर वाले अक्सर अन्दर झाँक कर ये जायज़ा लेते हैं कि कौन कितने पानी में तैर रहा
है। ज़ाहिर है वो अब समन्दर की हैसियत रखते हैं।
उनके पाँच हज़ार से ज्यादा चाहने वाले, न केवल एक-एक लफ़्ज़ ‘वाह-वा’ का घन-नाद करते हैं बल्कि उनकी एक आह पर चीत्कार भी कर उठते हैं। इस अनोखी
दुनिया के बाहर दम-तोड़ती लघु-मझोली पत्रिकाएँ, अपनी हैसियत पर शर्मिन्दा होती हुई उन्हें अपनी पत्रिकाओं को पवित्र करने का न्योता भेजती रहती हैं।
फेसबुक के इतर भी वे विभिन्न ब्लॉग के गलियारों में टहलते पाये जाते हैं।
प्रयोगधर्मी तो खैर वे हैं ही, अब तो साहित्यिक
वादों से भी बहुत आगे निकाल आए हैं। किसी वाद में शामिल करने की जिद हो ही तो उन्हें
‘खुल्लमखुल्ला-वाद’, ‘निर्बाध-वाद’ या सबसे सटीक ‘फ़ालोवर-वाद’
का प्रणेता कहा जाना चाहिए। ऐसा कहने के पीछे इतना सा तर्क है कि उनके एक-एक शब्द के
पीछे उन्हें ‘फॉलो’ करते पाठक होते हैं जो न सिर्फ उन्हें जज़्ब कर लेते हैं बल्कि तुरन्त उनका असर भी बताते हैं। कई बार वो यूँ ही पाठकों का मूड जानने के लिए चारे की तरह कुछ
शब्द तैरा देते है और उसमें फँसी प्रतिक्रिया की मछलियों को टटोल कर अगली रचना की रेसिपी
तय कर लेते हैं।
एक दिन उन्होने फेसबुक की दीवार पे लिखा “ऊँ... ऊँ...”।´दो सौ लोगो ने तत्क्षण इसे पसन्द किया। कुछ क्षण और प्रतीक्षा के बाद एक प्रतिक्रिया
आई – ‘उफ़्फ़! अकेलेपन की उदासी का कितना मार्मिक बयान..” उन्हें प्रेरणा मिल गई। दो
चार सौ शब्दों, कुछ विरामों- अर्धविरामों और चन्द रिक्त स्थानों
की मदद से उन्होने अमूर्त-चित्राङ्कन जैसा एक महान शाहकार रच डाला। बताना जरूरी नहीं
कि पाठकों ने किस तरह उसे सराहा।
जैसा कि पहले से स्पष्ट है कि वे शैली, वाद,
कथ्य, सरोकार आदि के बन्धनों से परे हैं। सीधे हृदय
से लिखते हैं। ये हृदय जो है उससे हजारों तार निकल कर पाठकों के हृदयों में घुसे हुये
हैं। फेसबुक तन्त्र का जाल रोज़-ब-रोज़ उनके प्रशन्सकों की तादाद में इजाफ़ा करता जा रहा है। इन प्रशन्सकों को उन पर इस हद तक भरोसा है कि वे
अपनी दीवार पर दो ‘डॉट’ भी भेज दें तो उनकी अर्थवत्ता सिद्ध करने की होड़ लग जाती है।
इस मुकाम को हासिल करने के लिए शुरू में उन्होने एक ही रचनात्मक काम किया
था कि फेसबुक पर अपनी तस्वीर की जगह एक सुन्दर कन्या का चेहरा डाला और आगे समय-समय पर
उसी कन्या की विभिन्न मुद्राओं को अपनी साहित्येतर गतिविधियों के रूप में पाठकों के
आगे रखते गए।
कमलेश पाण्डेय
9868380502
कमलेश पाण्डेय
9868380502
आज का पाठक अब इतना भी दिग्भ्रमित नहीं है जैसा चित्रण किया गया है ।
जवाब देंहटाएंमाफ कीजिएगा। पाठकों की बुद्धिमत्ता पर सवाल उठाने की जुर्रत कोई नहीं कर सकता। लोग-बाग जाने क्या-क्या लिख कर पोस्ट कर रहे हैं और उसे साहित्य का दर्जा भी मिल रहा है। वजह वो भी नहीं जो अंतिम पंक्तियों मे लिखा है। व्यंग्य में थोड़ी अतिशयोक्ति चलती है। पर ऐसा लेखन और प्रतिक्रियायेँ पाठक ही नहीं नए रचनाकरों को भी भ्रमित कर रही हैं। ...प्रतिक्रिया के लिए आपका
हटाएंआभार!
I agree to writer
हटाएंफेसबुक पर सभी तरह के साहित्यकार हैं...
जवाब देंहटाएंजो साहित्य के प्रति गंभीर हैं उनकी रचनाएँ खुले दिल से सराही जाती हैं|
कमलेश भाई !! इस व्यंग्य का जो निष्कर्ष है वो अद्भुत है !! मुझे शरद जोशी जी का एक व्यंग्य आलेख याद आ रहा है !! " नदी मे खड़ा कवि " यह अज्ञेय के काव्याडम्बर पर ज़बर्दस्त तंज़ था !! कुछ पंक्तियाँ – उसने प्रेम किये भाषा का स्तर उठा , प्रेम नहीं किया वैराग्य का स्तर उठा , वो बोला भाषा का स्तर उठा व नही बोला मौन का स्तर उठा –मुझे आश्चर्य है कि पयस्विनी यह नदी ऊपर क्यों नहीं उठ रही है !! फेसबुक पर आडम्बर बहुत है !! मल्बूस खुशनुमा हैं मगर खोखले हैं जिस्म // छिलके सजे हुये हुये हैं फलों की दुकान पर –शिकेब !! मैं !! भी कुछ महापुरुषों से इस दौरान बाबस्ता हुआ हूँ और आपसे खूब सहमत हूँ !! –मयंक
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