भरे जङ्गल के बीचों-बीच,
न कोई आया गया जहाँ,
चलो हम दोनों चलें
वहाँ।
जहाँ दिन भर महुआ पर
झूल,
रात को चू पड़ते हैं
फूल,
बाँस के झुरमुट में
चुपचाप,
जहाँ सोये नदियों के
कूल;
हरे जङ्गल के बीचों-बीच,
न कोई आया गया जहाँ,
चलो हम दोनों चलें
वहाँ।
विहग-मृग का ही
जहाँ निवास,
जहाँ अपने धरती आकाश,
प्रकृति का हो हर
कोई दास,
न हो पर इसका कुछ
आभास,
खरे जङ्गल के के बीचो
बीच,
न कोई आया गया जहाँ,
चलो हम दोनों चलें
वहाँ।
पण्डित नरेन्द्र शर्मा
1913-1989
सम्पर्क - आप की सुपुत्री आ. लावण्या शाह
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