30 अप्रैल 2014

तीन कविताएँ - आलम खुरशीद

कविता (१)
बदलता हुआ मञ्ज़र
आलम खुरशीद

मेरे सामने
झील की गहरी खमोशी फैली हुई है
बहुत दूर तक ........
नीले पानी में
कोई भी हलचल नहीं है
हवा जाने किस दश्त में खो गई है
हर शजर सर झुकाए हुए चुप खड़ा है
परिंदा किसी शाखे-गुल पर
न नग़मासरा है
न पत्ते किसी शाख पर झूमते हैं
हर इक सम्त खामोशियों का
अजब सा समाँ है
मेरे शहर में ऐसा मंज़र कहाँ है!!!

चलूँ !
ऐसे ख़ामोश मंज़र की तस्वीर ही
कैनवस पर उभारूँ
..............
........................
.............................
अभी तो फ़क़त ज़ेह्न में
एक खाका बना था
कि मंज़र अचानक बदल सा गया है
किसी पेड़ की शाख से
कोई फल टूट कर झील में गिर पड़ा है
बहुत दूर तक
पानिओं में
अजब खलबली सी मची है
हर इक मौज बिफरी हुई है .............


कविता (२)
नया खेल
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आलम खुरशीद
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पिंकी ! बबलू ! डब्लू ! राजू !
आओ खेलें !
खेल नया .

पिंकी ! तुम मम्मी बन जाओ !
इधर ज़मीं पर चित पड़ जाओ !
अपने कपड़ों,
अपने बालों को बिखरा लो !
आँखें बंद तो कर ले पगली !

डब्लू ! तुम पापा बन जाओ !
रंग लगा लो गर्दन पर !
इस टीले से टिक कर बैठो !
अपना सर पीछे लटका लो !
लेकिन आँखें खोल के रखना !

बब्ली ! तुम गुड़िया बन जाओ !
अपने हाथ में गुड्डा पकड़ो !
इस पत्थर पर आकर बैठो !
अपने पेट में काग़ज़ का
ये खंजर घोंपो !

राजू आओ !
हम तुम मिल कर गड्ढा खोदें !
मम्मी , पापा , गुड़िया तीनों
कई रात के जागे हैं
इस गड्ढे में सो जाएँगे !

भागो ! भागो !
जान बचाओ !
आग उगलने वाली गाड़ी
फिर आती है ...
इस झाड़ी में हम छुप जाएँ !
जान बची तो
कल खेलेंगे
बाक़ी खेल ....................!!

कविता ३
नया ख़्वाब
***********
आलम खुरशीद
***************
मैं यकीं से कह नहीं सकता
ये कोई ख़्वाब है या वाकिआ
जो अक्सर देखता हूँ मैं

मैं अक्सर देखता हूँ
अपने कमरे में हूँ
मैं बिखरा हुआ
इक तरफ़ कोने में
दोनों हाथ हैं फेंके हुए
दुसरे कोने में
टांगें हैं पड़ीं
बीच कमरे में गिरा है धड़ मिरा
इक तिपाई पर
सलीके से सजा है सर मिरा
मेरी आँखें झांकती हैं
मेज़ के शो केस से ...

ये मंज़र देखना
मेरा मुक़द्दर बन चूका है
मगर अब इन् मनाज़िर से
मुझे दहशत ही होती है
न वहशत का कोई आलम
मिरे दिल पर गुज़रता है
बड़े आराम से
यक्जा किया करता हूँ
मैं अपने जिस्म के टुकड़े
सलीके से इन्हें तर्तीब दे कर
केमिकल से जोड़ देता हूँ ....

न जाने क्यूं मगर
तर्तीब में
इक चूक होती है हमेशा
मेरी आँखें
जड़ी होती हैं
मेरी पीठ पर .....

आलम खुर्शीद
9835871919

4 टिप्‍पणियां:

  1. आसमाँ का सायबाँ के समन्दरों का साया है..,
    ख़ारों-ख़ार ये क़ायनात सरे-सब्ज होने को है.....

    ख़ारों-ख़ार क़ायनात - उष्ण कटिबंधीय प्रदेश
    सरे-सब्ज = हरा-भरा

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  2. क्या बात पहली कविता मे जहां एकदम निःशब्द नीरवता वहीं दूसरी में चंचलता । तीसरी खुद को ही उधेडकर बुनने की नाकाम कोशिश और एक नये आयाम में सलीके से सोचते हुये आगे बढती है क्या कहने । लाजबाव

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  3. आलम साहब !! शब्दों पर उनकी ध्वनि पर और उनकी तस्वीरी सिफत पर जो ज़बर्दस्त इख्तियार रखते हैं उसी ने उन्हें इज़हार का बादशाह बना रख़ा है –उनकी गज़लों के तो हम सब मुरीद हैं ही –लेकिन अन्य विधाओं में भी क्या अधिकारी रचनायें वो कहते हैं !! बहुत खुश्किस्मत हूँ कि उनका अशीष मुझे खूब मिलता है – आलम साहब की विनम्रता और साफगोई !! उनके व्यक्तित्व की विशेषतायें हैं – मैने उनके संकलन कारे ज़ियाँ के लिये एक आलेख जर्मनी की एक वेवसाइट के लिये लिखा था !!! जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं –
    The critics have their priorities and the fans have their idols. But some names are always a part of almost all such discussions & that’s ample evidence why Alam Khursheed is an unavoidable name in the contemporary Gazal . His poetry has already reached enduring heights but the work of proper and genuine valuation of this Shayar I think has not been carried –out properly so far by the critics . The other side of the coin is that he is one of the most liked Shayars in Urdu Adab as well as in Devanagari Script . No magazine wishes to miss this name in the Index for valid reasons – 1) Simplicity of the language with remarkable depth of thought 2) The statement is a true mirror of the contemporary time as well as the time zone which is relevant to affect our life . 3) A rare combo of classic literature and public sentiments – He knits the expression in such a way that a large segment of readers& listeners found very much what they desire .

    उनकी गज़लें /रचनाये किसी भी अदबी दायरे की ज़ीनत होती है – मयंक

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