मतला
सुना रहा था कि मक़्ता फिसल गया
मञ्ज़र - दृश्य
बाजी लगी हुयी थी उरूजो-ज़वाल की
मैं आसमाँ-मिज़ाज ज़मीं पर मचल गया
उरूजो-ज़वाल = चढ़ाव-उतार
चारों तरफ़ उदास सफ़ेदी बिखर गयी
वो आदमी तो शह्र का मञ्ज़र बदल गया
तुम ने जमालियात बहुत देर से पढ़ी
पत्थर से दिल लगाने का मौक़ा निकल गया
जमालियात - सौदर्य सम्बन्धित
सारा मिज़ाज नूर था सारा ख़याल नूर
और इस के बावजूद शरारे उगल गया
: रऊफ़ रज़ा
9811326547
बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु फ़ाइलातु मुफ़ाईलु फ़ाइलुन
221 2121 1221 212
वाह वाह !
ReplyDeleteशानदार ग़ज़ल है...
मुबारकबाद !
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ReplyDeleteग़ज़ल की नावल्टी और रवानी देखते बनती है !! रऊफ़ भाई बैसे भी स्टार शाइर हैं धूम रहती है उनकी !!
Deleteतुम ने जमालियात बहुत देर से पढ़ी
पत्थर से दिल लगाने का मौक़ा निकल गया
सारा मिज़ाज नूर था सारा ख़याल नूर
और इस के बावजूद शरारे उगल गया
क्या खूब शेर हैं !! क्या खूब !!! एक शेर इस गज़ल के सम्मान मे --
उस दिन से ख़ामुशी के हुये हम असीर यूँ
जिस दिन हक़ीर लफ़्ज़ ज़ुबाँ से फिसल गया –मयंक
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ReplyDeleteबेहतरीन गजल है रौफ़् साहब।
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